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पन्द्रहवाँ सर्ग। [२०६ हैं। और बाकी के दो-स्थिति और अनुभाग बंध सदा कषायके कारणसे होते हैं ।। ७१ ॥ पहले-प्रकृति बंधके ये आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय ॥ ७२ ॥ मुनिवरोंने प्रकृतिबंधके उत्तर भेद इस तरह गिनाये हैं-ज्ञानावरणके छब्बीस भेद, आयुके चार भेद, नाम कर्मके सरसठ, गोत्र कर्मके दो मेह, और अंतरायके पांच भेद ॥ ७३ ॥ आदिके 'तीन कमौकी और अंतरायकी उत्कृष्ट मिति ती कोड़ाकोड़ी सागरकी हैं। मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी है। नाम और गोत्र कमकी स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी साग'रकी है। और आयुर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है || जघन्यस्थिति, आठो कोसे वेदनीयकी बारह मुहून, नाम और गोत्रकी आठ मुहूर्त, और हे राजन् ! शेष कर्माकी एक अमर्मुहूतकी होती है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान्ने कहा है ।। ७५ ।। जीव, प्रहण-कर्मग्रहण करते समय अपने अपने योग्य स्थानोंके द्वारा समस्त कर्म प्रदेशों में आत्म निमित्तक समस्त मावोंसे अनंतगुण - रसको उत्पन्न करता है इसीको अनुभाग बंध कहते हैं ।। ७६ ॥ हे राजन्.! पूर्णज्ञान-नेत्रके धारक जिन भगवान्ने ऐसा कहा है कि
प्राणियोंको चार घातिकर्मीका.यह अनुभाग बंध एक दो तीन चार 'स्थानों के द्वारा होता है। और एक ही समयमें स्वप्रत्ययसे शेषका
द्रो तीन चार स्थानों के द्वारा होता है। वह बंध शुभ और अशुम - रूप. फलकी प्राप्तिका प्रधान कारण है ॥ ७७ ॥. जिनको जिन भगवान्ने नामप्रत्ययसे-समस्त कर्म प्रकृतियोंके कारणसे संयुक्त बताया है। वे एक ही क्षेत्रमें स्थित सूक्ष्म पुगलं युगवत् समस्त भावोंसे या