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पन्द्रहवाँ सर्गः। [ २०३ अपाय और अवद्यरूप हैं। प्रशम : युक्त. मव्योंका यह अंतर्धन ही. “सार है ॥ ६ ॥ समस्त सत्वोंमें मैत्रीकी भावना भानी चाहिये-दुःखकी अनुत्पत्तिकी अभिलाषा रखना चाहिये। जो गुणोंकी अपेक्षा अधिक हैं उनको देखकर प्रमुदित होना चाहिये, पीड़ित यो दुःखियों में करुणा बुद्धि रखनी चाहिये, जो अविनयी-मध्यस्थ हैं उनमें उपेक्षा बुद्धि रखनी चाहिये
६.१.शरीरके स्वभावका और जगतकी परिस्थितिका चितवन इसलिये करना चाहिये कि आचार्योने इनको संवेग और वैराग्यका कारण बताया है । अतएव इनका निरंतर यथावत् चितवन करना चाहिये। .... - अब संक्षेपसे बंत्रका स्वरूप बताते हैं ॥६२॥ मिथ्यात्व मात्र, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग ये बंधके कारण होते हैं । इस प्रसिद्ध मिथ्यात्वभावको आचार्य सात प्रकारका बताते हैं ।। ६३ ।। हे राजन् ! यह अविरति दो प्रकारकी है। इसीको असंयम भी कहते हैं । इसके मूलदो मंद-इन्द्रियासंयम और प्राणासंयम तथा उत्तर भैई. बारह हैं। पांच इन्द्रिय और छठे मनके विषयकी अपे. क्षासे छह भेद, और पट्कायकी अपेक्षा छह भेद ॥ ६४ ॥ हे नर-. नाथ । आगंसके. जाननेवाले :सत्पुरुषोंने आठ प्रकारकी शुद्धियों
और उत्तम क्षमा आदि दश धमीके.विषयक़ी अपेक्षासे जैनशासनमें 'प्रमादक अनेक भेद बताये हैं ॥६५ ॥ नो कपायों के साथ साथ-. नोकपायोंके मिलानेसे सत्पुरुष क.पायके पचीस भेद बताते हैं। योगका सामान्यसे एक. भेद है। विशेषकी अपेक्षा तीन (मन वचन काय) भेद हैं। तीनों के उत्तर भेद पन्द्रह होते हैं-चार मनोयोग: