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पांचवां सर्ग। क्योंकि कुनाम पृथ्वीका है सो तारागण पृथ्वीसे कभी लीन नहीं' होते स्पर्श नहीं करते; किंतू ताराओंको छोड़कर नगरीमें और कोई भी अकुलीन-नीचकुली नहीं था। इसी तरह यहांपर सदा दोषाभिलापी कोई थे तो उल्लू ही थे, अर्थात यहां कोई. मनुष्य दोषोंकी अभिलाषा नहीं करता था; किंतु उल्लू ही सदा दोषा-रात्रिकी अमिलापा रखते थे। यहां कोई मनुष्य अपने सवृत्तका-सदाचारका मंग नहीं करता था; किंतु सद्वत्तका-श्रेष्ठ. छंदोंका भंग केवल गद्य रचनामें ही होता था, यहां रोष होता तो शत्रुओंका ही होता औरका नहीं ॥ १३ ॥ दंड केवल ध्वजामें ही पाया जाता, किसी पुरुषको दंड नहीं होता था। बंध केवल मृदंगका ही होता । भंग-कुटिलता सुंदरिओंके केशोंमें ही पाई जाती। विरोध केवल पीनरोंमें ही रहता-वि अर्थात् पक्षियोंका .रोध अर्थात धिराव केवल पीनरों में ही मिलता, और कहीं भी विरोध-झगड़ा नहीं दीखता था। वहां कुटिलताका सम्बंध केवल सांपोंकी गतिमेंही रहता है-अन्यत्र नहीं ॥ १४ ॥
. इस नगरीका स्वामी नीलकंठ नामका महा प्रभावशाली राजा था । वह विद्याधर और धैर्यरूप धनका धारक था। इंद्रके समान क्रीड़ा करनेवाला तथा विविध ऋद्धियोंका स्वामी था । इसका सुंदर . हृदय विद्याओंके संबंधसे उन्नत था॥ १५ ॥ यह राना.श्रेष्ठ पुरुषोंसे पूजनीय जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति-प्रना आसक्त रहती है तथा निसका उदय नित्य रहता है, और जो अंधकारके प्रचारको दूर करनेवाला
इस लोकके अंतमें " सदनस्य चाक्ष " ऐसा पाठ · है, उसका अर्थ हमारी समझमें नहीं आया। . .