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१३४ ] महावीर चरित्र। समान है अथवा जो मेरी दोनों पैरोंकी धूलके बराबर है अत्यंत प्रेमसे पाकर अतिशय मूढ़ तू गर्विष्ठ हो गभा है ! अथवा ठीक ही , है-जगत्में क्षुद्र प्राणियोंको केवल मुसीके पा जानेसे ही अत्यंत संतोष होनाता है। यदि हृदयमें कुछ नियमसे शक्ति है तो तू इसको अभी छोड़ ॥१९॥ चक्रको पाकर वह विष्णु इस तरह बोला"यदि तू अपने हृदयम * हुए खाटे हर्पको या वृथाके अमिमा नको छोड़ दे, और मेरे पैरों में आकर नमस्कार करे तो मैं तेरा:: पहलेकासा ही वैभव कर देता हूं!" त्रिपिटके इतना कहते ही अच-: श्रीवने उसकी-त्रिपिष्टकी बहुत कुछ निर्भत्सना की-उसको विकास इस पर क्रोधसे उस त्रिपिष्ठने इसका शिर ग्रहण करो इसलिये तत्क्षण फेंक कर चक्र चलाया ॥ १०॥ उसी समय विष्णुकी इस आज्ञाको पाकर चक्रने उसको पूरा कर अश्वग्रीवकी गर्दन परसे.. जिसमेंसे किरणे निकल रही हैं ऐसे मुकुटसे युक्त शिरको युद्धकी : रंगभूमिमें शीघ्र ही डाल दिया ॥ १०१ ।। इस प्रकार अपने शत्रुकों : : मारकर त्रिपिष्ट धारसे निकलती हुई अग्निकी ज्वालासे पल्लवित.' भूषित आगे रहनेवाले चक्रमे वैसा शोमाको प्राप्त नहीं हुभा जैसा कि वैरको सूचित करनेवाली या कहनेवाली-बतानेवाली संपत्तिको राजाओंके साथ साथ देखते हुए अभयकी वाचनाके लिये अंजलि.. जोड़कर-खड़े हुए विद्याधरोंके चक्रसमूहसे शोभाको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अशग कविकृत वर्द्धमान चरित्रमें 'त्रिपिष्ट विजय,...
नामक नवां सर्ग समाप्त हुआ।