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१५८] महावीर चरित्र । अधिक अधिक शुद्ध होने लगीं ॥ १४ ॥ अत्यंत गरम हवाक लगनेसे जो सुख गया था तथा सुर्यकी किरणों की ज्वालाओंके संतापसे जो सब तरफसे जलने लगा था उस शरीरने भी सिंहके मनमें कोई व्यथा उत्पन्न न की। ठीक ही है-जो धीर होते हैं व एसे ही होते हैं।॥ ५५ ॥ अग्नि समान मुखवाले डांप और मक्यिोंके सुडोंक। द्वारा तथा मच्छरों के द्वारा मर्म स्थानों में काट नानपर मी कंप-इलना चलना आदि क्रियाओंसे रहित मिहने मनसे प्रशम और संघरमें दुना दूना अनुराग धारण किया ॥ १६ ॥ यह मरा हुआ सिंह है इस शंकासे मदसे अंधे हुए गनराोंने जिसकी सटाओं को नष्ट कर दि या है ऐसे उम मगेन्द्रने हृदय में अत्यंत तितिक्षा-सहनशीलता धारण करली । मुमुक्षु-मोक्ष होनेकी इच्छा रखनेवाले प्राणियोंने ज्ञान प्राप्त करनेश श्रेष्ठ फल यही है ।। ५७ ॥ छोड़ा है शरीरको निसने ऐसा वह हस्तियोंका शत्रु क्षणके लिये भी भूख या ८.ामसे विवश न हुआ। धैयके कव से युक्त धीर मनुष्यकी एक प्रशरत ही क्या सुखरूप नहीं होती है। ॥ ५८ ॥ अंतरंगमें रहनेवाले . कपार्योंके साथ साथ बाहरके शरीरके अंगोंसे भी वह प्रतिदिन कृष होने लगा। मानों हृदयमें विराजमान मिनेन्द्र देवकी भक्तिक भारसे .. ही उसने प्रमादको बिल्कुल शिथिल कर दिया ॥ ५९॥ प्रश शांतिकी गुहाके भीतर रहनेवाले उस सिंहको रात्रियों में प्रचण्ड शीतल पवन बाधा न देसका । सो ठीक ही है-निलम और अनि.. कठोर संचारवाले जीवको शीत थोडीसी भी पाषा नहीं देमकता ॥ ६.० ॥ मरा हुआ समझकर रात्रिके समय उसको लोमड़ी और शृगाल तीक्ष्ण नखोंके द्वारा नाँच नोंच कर खाने लगे तो वो उसने