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तेरहवां सर्ग ।
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[ १७९ या पूर्व कालकी ) विभूतिसे रहितका सम्मान कैन होता है यां हो सकता है, इस बात को जान करके ही मानों सूर्यने अपने शरीरको अस्ताचल के भीतर छिपा लिया ॥ ३२ ॥ नम्र हो गई हैं शाखायें जिनकी ऐसे वृक्ष शीघ्र ही आकर प्राप्त हुए- अ. कर बैठे हुए पक्षियोंके कलकल शब्दों के द्वारा यह सूर्य या स्वामी हमको छोड़कर जा रहा है ऐसा समझकर मानों स्वयं अनुताप करने लगे। ठीक ही है - मित्र (स्नेही; दूसरे पक्ष में सूर्य ) का वियोग किनको संतापित नहीं करता है ॥ ४० ॥ चक्रवाक युगलको नियमसे परस्परमे दुरंत पीड़ा संहते हुए देखनेके लिये अरमर्थ ॥ के विचारसे ही
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कमलिनीने कमलरूप चक्षुको बिल्कुल मींच लिया ॥ ४१ ॥ चये हुए : समस्त विश- कमलतंतुके खंडंको छोड़कर मायंकाल के समय आक्रं 'दन करता हुआ मुखको मोड़ हर अत्यंत मूलि होग हुआ चक्रवाकका जोड़ा वियुक्त हो गया ||४२ ॥ वरुण दिशा - पश्चिम दिशामें जो कुसुमके समान अरुग है कांति जिसकी ऐसी होती . हुई . संध्या ऐसी मालूम पड़ी मानों सूर्यके पीछे गमन करती हुईं "दीप्तिरून वधुओंके चरणोंपर लगे हुए महावरसे रंगा महावरसे रंगा हुआ मार्ग ही
| ४ ३ || मधु - पुष्परस से चंचल हुए अपर मुकुलिन हुए कपलोंको बिल्कुल छोड़ना नहीं चाहते थे। जो कृतज्ञ है-किये हुए उपका
को भूलनेवाला नहीं है. वह ऐमा कौन होगा जो अपने 'उपकारीको आपत्तिमे फँसा हुआ देखकर छोड़ दे ॥ ४४ ॥ अपूर्व - पश्विन "दिशाके मध्यको उसी समय छोड़कर संध्या भी सूर्यके पीछेर चली गई। 'जो अत्यंत रक्त ( अशक्त, दूसरे पक्षमें लाल ) होती है वह अपने शक्ति नहीं रखती ॥४५॥
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'बलम को छोड़कर दमरेमें बिल्कुल
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