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१८४ ] महावीर चरित्र : -.:. नत्रोंको कुछ मींचकर दूरसे ही विपरीतता ( विनाश, दुसरा भय विरुद्धता) धारण करली ॥ ७३॥ ___ रात्रिके अंत समयमें महलके कुंनोंको जिन्होंने प्रतिध्वनित करदिया है ऐसे पूर्ण अंगवाले अत्युज्मल वैबोधिर-चंदीगण नमादिया। है शत्रुओंको जिपने ऐमें उस रानाको जगाने के लिये उसके निवार महलके आंगन में आकर ऐसे स्वरसे पाठ करने लगे निसको सुनेत
ही आनन्द आनाय || ७४ ॥ .... ___कामदेवसे संतप्त हुए मनवालोंकी तरह दंपतियों की धैर्य और लजासे चेष्टाओंको देखकर मानों लजित हो करके ही रननीरात्रि चन्द्र-मुखको नीचा करके हे सुमुख ! विमुख होकर कहीं। जा रही है ॥७५॥ नवीन मोतियों के समान है आमा :निनकी ऐमी : ओमकी बूनोंसे व्याप्त हुए वृक्ष ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों .. शीतल है वांति निसकी तथा कोमल है कर-किरण जिसकी ऐसे चंद्रपाके रससे भीगे हुए तारागणों के स्वद-जलकी आकाश पड़ी हुई.. . बड़ी बड़ी बूंदोंसे ही व्याप्त हो रहे हैं ॥७६॥ विकाशलक्ष्मीने जिनको
छोड़ दिया है ऐसे कुमुदोंको-चंद्र विकाशी कमलोंको मधुरानसे लोल हुए भ्रमर हे नाथ ! खिते हुए कमलोंकी सुगंधिसे सुगंधित कर दिया है दिशाओंको निसने ऐसे कमलाकर-कमलवनकी तरफ ना रहे हैं। उत्तम सुगंधिवाले के पास सभी लोग जाते हैं ।।.७७ ॥ थके हुए कोक-चक्राकने जबतक दोनों पंखोंको फड़फड़ाया भी। नहीं है तबतक रात्रिके विरह-जागरणसे खिन्न हुई भी कई गाने ।
लगी। अधिकतर युवतियां ही पुरुषों से स्नेह किया करती हैं.॥ - ७८ ॥ तत्काल खिले हुए कमल ही हैं नेत्र जिसके ऐसी: यह