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चौदहवां सर्ग |
[ १८९ और स्पाति हैं, मुख्य जिनमें ऐसे द्वारपर खड़े हुए रत्नभूत - रत्नस्त्ररूप सेनापति हस्ती और घोड़ा हे' मूगल ! कन्यारत्नके ऊपर मापके कटाक्षपात की अपेक्षा कर रहें हैं ॥ १९ ॥ कुबेरकी लक्ष्मीसे नव निधि उत्पन्न हुई हैं जो कि अपने वैभवोंसे सदा विभूतियोंको उत्पन्न किया करती हैं। पूर्वजन्नके संचिन महापुण्यकी शक्तिकिसको किस चीज उत्पन्न करनेवाली नहीं हो सकती है ॥ २० ॥ इस प्रकार सेवक जिसका वर्णन किया है ऐसी मनुष्यजन्मकी सारभूत उत्पन्न हुई - चक्रवर्त्तिकी विभूतिको भी सुनकर महाराज साधारण 'मनुष्योंकी तरह आश्चर्यको प्राप्त न हुए। प्राज्ञ पुरुषों को इसमें कौतूहलका. क्या कारण है ? ||२१|| समस्त राज परिवार के साथ साथ भक्ति जिनेन्द्र भगवानके समक्ष जाकर सबसे पहले आनंदके साथ उनकी ' पूजा की। पूना करने के बाद मार्ग - विधिके जानने वाले इस राजाने यथोक्त विधिके अनुमार की विस्तारसे अनेकों बड़े बड़े राजाओं व्याप्त इस समस्त पखंड पृथ्वी को उसने चक्के द्वारा कुछ ही दिनों में अपने वश में - कर लिया | महापुण्यशालियोंको जगत् में दुःसाध्य कुछ भी नहीं है || २३ || इस प्रकार वह सम्राट प्रसिद्ध र बत्तीस हजार राजाधिराजांभोंसे और सोलह हजार देवोंसे तथा छ्यानवे हजार रमणीय त्रियोंसे वेष्टित होकर रहने लगा ॥ २४ ॥ कुबेरकी दिशा-उत्तर : दिशा में नैसर्प, पांडु, पिंगल, काल, भूरिकाल या महाकाल, शंख, पद्म, माणव और सर्वरत्न इन नव निधियोंने निवास किया ||२५|| 'सर्प निधि मनुष्यों को सदा महल, शयन-सोनेके रख, उपधान *. (त किया), आसंदी आदिक श्रेष्ठ आसनके भेद, पलंग, तथा अनेक जातिके
पूजा की ॥ २२ ॥
विद्याधरों और देवोंसे