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दशवा सर्ग
[१३५ दशका सर्ग। ...समस्त राजाओं और विद्याधरोंके साथ साथ विनय-बलभद्रन
:: केशव-त्रिपिष्टका अभिषेक किया। अभिषिक्त होकर त्रिपिष्टने पहले जिनेन्द्रदेवका पूजन कर यथोक्त-आगममें कहे अनु"सार चक्रकी मी पूजन की । अथवा पहले जिनन्दकी पूजन की। उसके बाद विनयके द्वारा अभिषिक्त हुभा और बाद में उसने चक्रकी पूजन की. ॥१॥ प्रणामसे संतुष्ट हुए गुरुओंने प्रसन्नतासे निसको आशीर्वाद दिया है, जिसके आगे आगे चक्रका मंगल उपस्थित है या जिसके आगे चक्रवाक पक्षीका शकुन हुआ है ऐसे नारायणने राजाओंका योग्य सत्कार कर दशों दिशाओंके जीतनकी इच्छासे "प्रयाण किया ॥२॥ महेन्द्र तुल्य त्रिपिष्ट पहले अपने तेनस महेन्द्र• की दिशाको वश कर उसके बाद मागध देवको नम्रकर उसके
दिये हुए बहुमूल्य विचित्र भूषणोंसे शोमाको प्राप्त हुभा ॥३॥ - इसके बाद वरतनुको और उसके बाद क्रमसे प्रभासदेवको नम्रकर
अच्युतने दूसरे द्वीपोंके स्वामियोंको नो भेटको ले लेकर आये थे • उनको अपने तेजमें ही ठहराया । अर्थात्. अपने तेजसे ही उन सवको वशमें कर लिया । इसतरह कुछ परिमित दिनों में ही
भरतक्षेत्रके पूरे आधे : मागको. उसने कर देनेवाला कर लिया-बना .. लिया वंह आधे मरतक्षेत्रका राज्यशासन करने लगा। इसके बाद नगर निवासियोंने मिलकर निप्सकी पूना-सत्कार किया है ऐसे त्रिपिष्टने जिसके उपर ध्वजायें उड़ रही हैं. ऐसे पोदनपुरमें इच्छानुसार प्रवेश किया.॥११॥ जिसके नायकका अंत हो चुका है ऐसी विन