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दसवाँ सर्ग। प्रभाकी पंक्तिको तथा दिशाओं में चन्द्र किरण समान निर्मल अपनी कीर्तिको रेखकर: पृथ्वीका शासन करने लगा ॥ १३ ॥ करुणा बुद्धिके धारक केशवने मंत्रीकी शिक्षासें शत्रुओं के बालकोंको नो कि अपने पैरोंमें आकर पड़गये थे देखकर उनपर विशेष कृपा की। जो सजन होते हैं वे नम्र पुरुषोंपर दयालु होते ही हैं ॥ १४ ॥ उसके पुण्यसे वह पृथ्वी मी विना जोते ही पक जानवाले धान्योंसे सदा भरी रहती थी। प्राणियों की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। मनोरथोंकी कोई असिद्धि नहीं हुई-सबके मनोरथ सिद्ध होते थे ॥ १५ ॥ उसकी इच्छाका अनुवर्तन करती हुई वायु हमेशहं सत्र जगह प्राणियोंको सुख देनेके लिये बहती थी। दिन दिन-समय समयपर मेवं पृथ्वीको धूलिको साफ करते हुए-धोते हुए मुगंधित जल वरसाते थे ॥ १६ ॥ अपने अपने वृक्षों और बल्लियोंको उत्पत्ति के साथ २ परस्परमें विरुद्ध रहते हुए भी समस्त ऋतुगण उसको निरंतर प्राप्त होने लगे। चक्रवर्तीकी प्रमुना आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है ॥ १७॥
जिस समय यह समीचीन राजा पृथ्वीका रक्षण करता था उस समय कठिनता केवल यौवनकी बढ़ी हुई श्रीको धारण करनेचाली मृगनयनियोंके एकदम गोल और अत्युन्नत कुत्रोंमें ही निवास करती; ॥ १८ ॥ जिसके भीतरकी मलिनता विल्कुल भी नहीं देखनेमें भाती ऐसी अस्थिरता-चंचलता केवल स्त्रियोंके बिल्कुल कानंतक पहुँचे हुए विस्तीर्णता युक्त कांतिके धारण करनेवाले धवल नेत्रों में ही रहती थी॥ १९ ॥ विचित्र रूपता और निष्कारण निरर्थक गर्जना निरंतर भीतर भीगे हुए और वर्षनेवाले तथा रनो