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१९४ ] महावीर चरित्र ।... .. गतियोंमें जन्म धारण करता है । उस जन्मसे शरीर और इन्द्रियों : को पाता है । इनसे-शरीर और इन्द्रियोंसे सदा ही विषयों में रतिः होती है। विषयोंमें रति करनेसे फिर वे ही सब दोष (मिथ्या दर्शन आदिक ) प्राप्त होते हैं ॥ २७ ॥ जीवकी संसार-समुद्र में , बारबार भ्रमण करनेकी यह परिपाटी होती है। इसको जिनेन्द्र देवने अनादि और अनन्त बताया है। जीवका बन्ध-क्रमरन्धःसादि और सांत मी है ॥ २८ ॥ हे मृगरान! तू हृदयमें से कि पायके दोपोंको निकाल-दूरकर, सर्वथा शांतिमें तत्पर हो, जिनेन्द्र... देवके बताये हुए मतमें प्रणय-प्रेम-रुचि-श्रद्धा कर और कुमार्गक प्रेमको दूर कर ॥ २९ ।। सम्पूर्ण प्राणियोंको अंग्ने समान : समझकर तीनों गुप्तियों-मन वचन कायक निरोधोंसे युक्त होता हुआ उनके वध करनेके भानको . छोड़ । जो निपमसे आत्माके क.. त्यागको समझता है वह दूसरोंको दुःख किस तरह दे सकता है. • ॥३०॥ हे सिंहरान ! जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सदा .. . बाधामहित विषम अपनी और परकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला .. अर्थात कर्मोके परवशं अनिश्चित और बंधका कारण है। इसको । • उग्र दुःखरूप समझ ॥ ३१ ॥ यह शरीर, नव द्वारोंसे युक्त, रजः
वीर्यके उत्पन्न होनेसें स्वमावसे सदा अशुचि, अनेक प्रकारके मलोंसे : पूर्ण, विनश्वर, दोषरूप, विविध प्रकारकी शिराभोंके. जालसे बंधा • हुआ, बहुतसी तरहके हजारों रोगोंके रहनेका घर अपने शरीरके : . चामके कवचसे ढका हुआ, कृमिनालसे भरा हुआ, दुर्गंधियुक्त :
' और स्थिर तथा विक्ट हड्डियोंके बने हुए एक यंत्रके समान है। : इस शरीरको ऐसा समझकर कि यही. अनेक तरहके दुःखों का कारण