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ग्यारहवां सर्ग |
है. तू उससे ममत्वबुद्धिको बिल्कुल हटा ले। जो - अपने से मिन्न चीनमें जो चीज अपनी नहीं है
[ १५५ समझदार है वह उसमें मति- ममत्व
बुद्धिको किस तरह धारण कर
सकता है ? ॥
३२-३४ ॥ हे
मृगराज ! जहां पहुंचकर फिर भ धारण नहीं करना पड़ता ऐसे ! तथा जिसमें इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं ऐसे और बाधा रहित निरुपम • आत्ममात्रसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षके सुखको प्राप्त करनेकी इच्छा तो निश्चय बाह्य और अंतरंग परिग्रहका त्याग कर ॥३५॥ घर घन शरीर आदिक सब बाह्य परिग्रह हैं । अनेक प्रकारके जो रांग, लोम, कोप- आदिक भाव होते हैं. उनको अंतरंग परिग्रह समझ यहः परिग्रह दुरंत है - इसका परिपाक खोटा है || ३६ || तु अपने मनमें ऐसा समझ कि मेरा जो आत्मा है वही मैं हूं । वह अक्षन श्रीमाला और ज्ञान दर्शन लक्षणवाला है । दूसरे समस्य भावः मुझसे
भिन्न हैं अज्ञानरूप हैं और समागम रक्षगवाले हैं - उनसे मेरा केवल संयोग मात्र है ॥ ३७ ॥ निर्मल सम्यग्दर्शनरूप गुहाके भीतर उपशमरूप नखके द्वारा कपायरूर हाथियोंका वध करता हुआ तू यदि संयमरूप उन्नत पर्वतपर निवास करे तो हे सिंह ! तू नियमसे सिंह - मयों में उत्तम है ॥ ३८ ॥ तू यह निश्चय समझ कि जिनंवचनसे अधिक संसारमें दूसरा कुछ भी हितकर नहीं है 1. क्योंकि इसके द्वारा अनेक प्रकारके प्रचल कर्मों के पाशसे जीवकी सर्वथा मोक्ष होती हैं || ३९ ॥ दोनों कर्णरूप अंजलीके द्वारा पीया गया यह दुष्प्राप्य जिन वचनरूप रसायन विषयरूप विषकी तृपापीनेकी इच्छाको दूर कर किम मंगको अजर और अमर नहीं बना देता है ॥ ४० ॥ हे सिंहोंमें श्रेष्ठ ! तु निश्चयसे मार्दवके द्वारा
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