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दशवा सर्ग। [१४७ ॥७३॥. कुलकी बना श्री विनयने विनयके साथ अपने मामाकी वंदना की। वह भी तत्क्षण उनको देखकर हपसे व्याकुल हो उठा। अपने बंधुओं का दर्शन होना इससे अधिक और क्या सुख हो सकता है ।। ७४ । इसके बाद बलभद्र और नारायण जिसके आगे
आगे हो लिये हैं ऐसे अक्रकीर्तिने उत्सबसे 6 रानमहलमें प्रवेश किया। वहां पर पुत्रवधू के साथ साथ स्वयंप्रभा उके पैरों में पड़ी। अकीर्तिने उनका यथोचित आशीर्वाद वचनोंसे स्कार किया ॥ ७॥ साथ ही सुतारा और अमिततेन स्वयंप्रभाके पैरों पड़े। -उसने (स्वयंप्रमाने) उनको देख कर उसी मा विना सायंवरके मनसें ही अपने पुत्र और पुत्रीके लिये नियुक्त किया ॥ ७६ ॥ चक्रवतीकी पुत्री अमिततेनपर आशक्त होगई। यकी अपेक्षा वह नियमसे उसकी स्त्री होगई। यह काम उसने मानों अपनो माताके संकल्पके वश होकर ही किया। मन नियमस आने पहले बल्लभको नान लेता है ।। ७७|| सुताराने श्री विन के मन को हर लिय । श्री विनयने कुटिल कटाक्षपातोंको बार बार देखकर उसके मनको हरलिया। मांतरका स्नेहरस ऐमा ही होता है ।। ७८ ॥
शुद्ध दिनमें अति विशुद्ध लक्षणोंवाली सखीनों के द्वारा जिसका सम्पूर्ण मङ्गलाचार किया गया है ऐसी ज्योतप्रभा राजाओंके मनोरथोंको व्यर्थ. करने के लिये स्वयम्बरके स्थान-बंडपमें आकर प्राप्त हुई ।। ७९ ॥ विधिपूर्वक सखीके द्वारा क्रपसे बताये गये "समस्त राजपुत्रोंको छोड़ कर ज्योतिप्रमाने लजासे मुग्व फेर कर चिरकाल के लिये अमिनतनके गलेमें माला पहरा दी ।। ८० ॥ इपके नादःसुंतारांने स्वयंवर में दूसरे सब राजाओंको छोड़ कर श्री विग