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दसवां सर्ग [ १४९ . inimum वचनोंसे यह कह कर कि यह निरर्थक व्यवसाय-उद्योग आत्माको सैकड़ों भवोंको कारण होना है, उस समय स्वयं रोका ॥ ८७ ॥ जिनसे वार वार आंसुओंकी विंदुएं टक रही हैं ऐसे दोनों नेत्रोंको "पोंछ कर कुशल शिलियोंके द्वारा बनाये गये लोकोत्तर वेशको धारण कर नारायण बाह्य पदार्थोका ज्ञान न होने देनेवाली निद्राके वशसे वश होकर अग्निकी शिखाओंके समूहके नवीन पत्तों के बिछोनेपर सो गया-1 -८८ ॥ संसारके दुःखसे भयभीत हुए बलभद्रने श्री विजयको राज्यलक्ष्मी देकर सुवर्णकुम्म मुनिको नमस्कार करके हजार राजाओंके . साथ दीक्षा धारण की ॥ ८९ ॥ रत्नत्रयरूप हथियारकी श्रीसे चारो घतिया कर्माको नष्ट करके केवलज्ञानरूप नेत्रके द्वारा तीनों लोकोंकी वस्तु स्थितिको युगपत् एक ही कालमें
देखते हुए बलमदने भव्य प्राणियोंको अभयदान देने में रसिक होकर : और फिर स्थित होकर अर्थात योगनिरोध करके सुख संपदाके उत्कृष्ट और नित्य सिद्धोंके स्थानको प्राप्त किया ॥९० ॥ इस प्रकार अशग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें 'बलदेव सिद्धि
- गमन' नामक दशवां सर्ग समाप्त हुआ।
ग्यारहवां सर्ग। चिरकाल: तक ( तेतीस सागर तक ) नरक गतिमें अनेक तरहके दुःखोंको भोगकर वह चक्रवर्तीका जीव फिर वहाँसे किसी तरह निकला और इसी भरतक्षेत्रके भीतर प्रविपुलसिंह नामके . पर्वतपर सिंह हुआ ॥ १ ॥ प्रथम- अनंतानुबंधी. कषायके कपाय: