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दसवां सर्ग ।
[ १४३ ..आकर प्रजापतिके चरणों को नमस्कार किया । इस पर प्रजापति दोनों से बोला ॥ ४७ ॥ कि- " आप विद्वानोंके अग्रेसर हो । क्या आपको यह संसारकी परिस्थिति मालूम नहीं है कि यह प्रातःकालके इन्द्र धनुष या मेत्र अथवा विमलीकी श्री शोभाकी तरह उसी क्षण में विलीन हो जानेवाली है ॥ ४८ ॥ जितने समागाम हैं, वे सब छूट"नेही वाले हैं, जितनी विभूतियां हैं वे सत्र विपत्तिका निमित्त हैं, शरीर बिल्कुल रोग रूप है, संसारका सुख बिल्कुल दुःख मूलक है, यौवन जन्म शीघ्र ही मृत्युके निमित्त नष्ट हो जाते हैं ॥ ४९ ॥ यह पुरुष आत्म के अहिरकर काम करने में स्वभाव से ही कुशल होता है, और अपने हिनमें स्वभावसे ही जड़ होता है। यदि आत्माकी ये दोनों बातें उल्टी हो जाय अर्थात् जीव स्वभावसे ही अपने निमें तो कुशल हो और अनिमें जड़ हो तो कौन ऐसे होंगे जो उसी समय मुक्तिको प्राप्त न करलें ॥ १० ॥ अनादिकालसे अनेक संख्यावालों अथवा जिनकी संख्या नहीं बताई जा सकती ऐसी कुगतियों में भ्रमण करते करते चिरकालसे बहुत दिनमें आकर इस जीवने किसी तरह इस दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर प्रधान इक्ष्वाकुवंशको भी पालिया है ॥। ११ ॥ 我 समस्त पंचेन्द्रियोंकी शक्तिंसे युक्त हूं, कुलमें अग्रणी हूं, उसमें कुशाग्र बुद्धि हूँ, हित और भहितका जाननेवाला हूं, समुद्रवसना वसुंधराका स्वामी मी हो गया हूं ।। ५२ ।। तुम दो मेरे पुत्र हो गये । जोकि किसीके मी वश न होनेवाले हो । और सभी महात्मा हलधरों - बलमद्रों तथा चक्रधरों - नारायणोंमें सबसे पहले हो । संसार में पुण्यशालियोंके जन्मका फल इसके सिवाय और क्या हो सकता है ॥ ५३ ॥