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। पचिवां सर्ग . ..१७ कला-चंद्रकला रात्रिसमयमें चंद्रमांको पाकर शोभाको प्राप्त होती है ॥४६॥ यह राजा. धैर्यको धारण करनेवाला, विनयरूपी सारभूत घनको ग्रहण करनेवाला, और नीतिमार्गमें सदा स्थित रहनेवाला था। इसकी मति विशुद्ध थी। इसने अपने इंद्रियं और मनके संचारको अपने वश कर रक्खा था। यह इस तरह शोभाको प्राप्त होती था मानों स्वयं प्रशमका-शांतिका स्वरूप ही हो ॥४७॥ जगतमें इसने यह प्रसिद्ध कर रखा था कि वह शुत्रुओंमें सदा अपने महान् 'पौरुखको लगाता है, सज्जनोंसे प्रेम करता है, प्रनाको नय न्याय)
और गुरुओंका विनय करता है, एवं जो उसको आकर नम्र होने हैं उनको वह खूब धन देता है ।। ४८ ॥
इस विमुके अपनी क्रांतिस अप्सराओंको यी नीतनेवाली जयावती. और मृगनवी नामकी दो रानियां थीं । इन दोनोंको पाकर यह राजा इस तरह सोमाको प्राप्त होने लगा मानों उसने मूर्तिमती धृति (धैर्य) और साधुताको ही प्राप्त कर लिया हो ॥४९॥ ये दोनों ही अनन्यसाधारण थीं। ये ऐसी मालूम पड़ती थीं मानों स्वय. लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही प्रकट हुई हो । इन्होने. अपनी मनोजताके. कारण पृथ्वीनाथको एकदम अपने वशमें कर लिया था... ५० ॥.
विशाखभूति स्वर्गसे:उतरकर इसी रानाके यहांविनय नामका पुत्र हुआ । जो पहले मगधदेशका. अधिरति था वह अव यहां , 'जयावतीके हर्पका कारण हुआ॥ ५१ ॥ निसं तरह. संसारमें पूर्ण
शंशी-चंद्रमा निर्मल आकाशकों, फूलोंका. महान् उद्गम-फूलना उप 'बनको प्रशमशांति-क्रोधादिक कपायौंका न होना प्रसिद्ध या