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९२३ महावीर चरित्र ।
सातवा सर्ग। विद्याधरोंके स्वामीने जब मंत्रिशालामें सम्पूर्ण मंत्रियोंको बुला लिया तब विनयके साथ २ आकर प्राप्त होनेवाले प्रजापतिन इस तरह बोलना शुरू किया ॥ १ ॥ हमारी यह अभीष्ट सम्पूर्ण “सम्पदा आपके प्रतापसे ही हुई है। वृक्ष क्या ऋतुओंके विना स्वयमेव पुष्पश्रीको धारण कर सकते हैं ? ॥ २ ।। हम सब तरहसे बालकके समान हैं। अभी तक हमने अपनी मुग्धताको नहीं छोड़ा
है। परंतु अब निश्चय है कि पियुक्त हुई जननी समान हितक . करनेवाली आपकी मति हमको सब तरहसे देखेगी। क्योंकि वह
वत्सल है, उसका हमपर बड़ा प्रेम है और कृत्याकृत्यके विषयमें भी वह कुशल है ॥३॥ जगत में जो गुणहीन है वह भी गुणियों के सम्बन्धसे गुणी बन जाता है। गुलाबके पुप्पोंसे सुगंधित हुआ जल मगजको भी सुगंधित कर देता है ॥ ४ ॥ अच्छा हो चाहे बुरा हो; परंतु विधि प्राणियोंको ऐसे प्रयोजनको बिना किसी तरहके प्रयत्नके किये ही स्वयं उत्पन्न कर देना है जिसका उन्होंने चितवन भी न किया-हो । क्योंकि वह अपने अद्वितीय कार्य में निरंकुश है ॥ ५॥ अति बलवान् चक्रवर्ती अश्वग्रीव दूसरे विद्याधर राजाओंके साथ २ सहसा उठा है। अतएव अब हमको आप बताइये कि उसके प्रति कैसा बर्ताव किया जाय ? ॥ ६ ॥ यह बात कहकर . तथा और भी बहुतसे कारणोंको दिखाकर जब राजाने विराम लिया तब.बार बार मंत्रियोंसे देखे जानेपर सुश्रुत नामका मंत्री इस तरहके बचन बोला ॥ ७ ॥ " ज्ञानके विषयमें विशुद्धताको हमने आपके