________________
mannaminnän
नववा सर्ग। [१२९ साथ अश्वग्रीवको विदीर्ण कर अर्ककीर्ति . बहुत ही शोमने लगा । युद्धमें शत्रुको मार कर-जीतकर कौन नहीं. शोमता है !
७०॥ इसी पृथ्वीपर जिस तरह पूर्वकालमें समस्त प्रमाके पति निभय आदि नीर्थकरने तप करते हुए दूसरों के लिये अनथ्य कामदेवको जीता था उसी तरह युद्ध में निर्मय प्रनापति रानाने दूसरोंसे अनन्य नहीं नीत सकने योग्य कामदेवको जीता ॥७॥ अक्रीनिके पिता-ज्वलननटीने विना ही प्रयासके अपने बाहुओं के पराक्रमके अतिशयसे युद्धमें अश्वग्रीवकी विजयामिछापाके साय चन्द्रशेखरके देषको नष्ट कर दिया ।। ७२ ॥ चित्रांगदादिक सातसौ विद्याधरोंको जीतकर शोभते हुए उस विजयने विरोधमें खड़े हुए मदांध नील रयकों इसतरह देखा जिस तरह सिंह हाथीको देखता है ॥७३कल्पनाय और देवनाथ-इन्द्र के समान अथवा कल्लकालके अंतमें पूर्व और पश्चिमके समुद्र के समान बढ़े हुए पराक्रमके धारक वे दोनों वीर परस्परमें युद्धके लिये तैयार हुए ॥ ७४ ॥ अपनेको अनेकरूप करनेकी क्रियाओंसे विशेष शिक्षाको दिखलाते हुए विद्याधरने पहले अधिक बलवाले भी बलभद्रके विशाल वक्षःस्थलमें गदाका प्रहार किया ॥ ७९ ॥ उसकी गदाके प्रहारसे घाव पाकर क्रोधसे गर्नते हुए वलभद्रने भी उसके शिरपर रखे हुए मुकुटको इस तरह गिराया जैसे मेव विजळीकी तड़तड़ाहटसे पर्वतोंके शिखरोंको गिरा. देता है ।। ७६ ॥ उसके मुकुटसे पड़े हुए मोतियोंसे युद्धभूमि व्याप्त होगई निनसे कुछ क्षणके लिये ऐसा मालूम पड़ा मानों अश्वग्रीवकी लक्ष्मीकी निन्ध नलविन्दुओंसे ही यह भूमि व्याप्त होगई है ॥.७७ ॥ दोनोंका नोर देखकर तथा दोनोंसे .