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सातवां सर्गः।... [१०३ . देखकर वह प्रसन्न हुआ. ॥८५॥ बड़े २ पहाड़ोंको दलन करता हुआ, नदियोंके ऊंचे २ तटोंको गिराता हुआ, विपथ-खोटे मार्ग'को अच्छी तरह प्रकाशित करता हुआ-स्पष्ट करता हुआ, सरोवरोंकी जलश्रीको गदला करता हुआ, रथोंके पहियोंकी चीत्कारसे आदमियों के कानोंको व्यथित करता हुआ, दिशाओंके विवरों-छिद्रोंको वायुमार्गको ढक देनवाली धूलिसे भरता हुआ वह प्रथम नारायण त्रिपिष्ट अपनी उस बड़ी भारी सेनाको आगे बढ़ाता हुआ जो कि घोड़ोंकी विभूतिसं ऐसी मालूम पड़ती थी मानों इसमें तिरंगें उठ रही हैं, जो आयुधोंकी ज्योतिसे ऐसी मालूम पड़ती थी मानों इसमें बिजली चमक रही है, जिनसे मद झर रहा है एवं अलते हुए पर्वतोंके समान मालूम पड़नेवाले हाथियोंसे जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों जलसे मरा हुआ मेघ ही है। अनमें वह कुछ थोड़े ही मुकाम करके उस रथावर्त नामके पहाइपर पहुंचा निसके ऊपर शत्रुकी सेना पड़ी हुई थी ८६-८७-८८-८९॥ . - सेनापतिने ऐसी जगह पहले ही जाकर देख ली कि जहां सरस घास वगैरह प्रचुरतासे मिल सकती हो, और जो धने वृक्षोंकी श्रेणीसें शोमित हो । बस उसी जगह एक नदीके किनारे सेना उहरी ।। ९० ॥ मजूर लोग पहले ही पहुंच गये थे। उन्होंने जल्दीसे जगह वाह साफ करके कपड़ोंके डैर और राजाओंके रहने लायक छोटे:२:मकान बना दिये । प्रत्येकके रहनेके (राजाओं आदिक).त्यानपरं उन २ के निशान लगे हुए थे ॥९॥ जिनको सम्पूर्ण बन्दोबस्त मालूम हो चुका है ऐसे सेनाके लोगोंने बखतर झंडे . तथा पलान वगैरहको उतारकर अत्यंत गर्मीसे संतप्त. हुएं हाथियों: