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आठवां सर्ग। [१०७. इष्ट-सेवक स्त्री भाई पुत्र गुरु माता पिता और बांधन, इनसे विरोध । नहीं करते ॥१०॥ नीतिक समझनेवाले होकर भी आपने भो यह 'पंडाव डाला है सो आपने अपने योग्य काम नहीं किया है। क्योंकि
अभिन्नहदयी चक्रान पहले स्वयं स्वयंप्रमाको मांगा था ॥११॥ यह टोक है कि यह वात आपने अभी सुनी होगी, नहीं तो एसा कोन होगा कि जितको पहलेहीसे अपने स्वामीकी चित्तवृत्ति मालूम पड़. जाय फिर भी वह उसकी विनयका उल्लंघन करे ॥१२॥ अत्र चक्रवर्तीने यह बात कही है कि परोक्ष बंधुने मरी परीस्थितिके विना जान स्वयंप्रमाका स्वीकार कर लिया है। उन्होंने यह काम मात्सर्यको छोड़कर किया है इसी लिये इसमें कोई दोष नहीं है ॥ १३ ॥ जो अन्तरात्मासे प्रेम करनेवालोंक जीवनको यथार्थमं मनोहर मानता है क्या उसके हृदय में बाह्य वस्तुऑमें किसी भी तरह लोभकी एक मात्रा भी उत्पन्न हो सकती है ? ॥ १४ ॥ बुद्धिमान आपको यदि इस कन्यासे ही प्रयोजन था तो तुमने पहले अश्वग्रीवसे ही क्यों नहीं प्रार्थना की ? क्या वहः उत्कृष्ट और अभीष्ट भी स्वयंप्रभाको छोड़ नहीं देता ? ॥ १५ ॥ क्या उसके अप्सराओं के समान मनको हरनेवाली बहुनसी स्त्रियां नहीं है । परन्तु केवल बात इतनी ही है कि उसका मन इस अति-. क्रम-विरुद्ध प्रवृत्तिको सहने के लिये बिल्कुल समर्थ नहीं है ॥ १६ ॥ जिस अनुराम और अक्षय सुखमें आप चक्रवर्तीका अनुनय-खुशामतः . करके प्रवेश कर सकते हैं, उस सुखको आप ही बताइये कि आपः स्वयंप्रमाके चंचल नेत्रोंके विकासको देखकर किस तरह पा सकते हैं। ॥१७ || निसने अपनी इन्द्रियोंको जीतलिया है उसका दूसरेसे