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सातवां सर्गः
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'वचनों को सुनकर सबने वैसा ही माना कि निःसंदेह यह करना चाहिये ॥ ५४ ॥
त्रिपिष्टकी विभूतिकी परीक्षा करने के लिये ज्वलननटीने उसके --साथ-२. विजयको मी पुरुविद्याओंके सिद्ध करनेकी उत्तम विधि - बताई || १५ || जिसको दूमरे बारह वर्ष में विधिसे भी सिद्ध नहीं कर सकते वही महारोहिणी विद्या इसके सामने स्वयमेत्र आकर सहसा प्रकट होगई ॥ १६ ॥ पद्वाहिनी, ईशवाहिनी आदिक दूसरी -समस्त विद्यायें भी आकर उपस्थित हुई । अहो उत्कृष्ट पुण्य-सं"त्तिके धारक महात्माओंको असाध्य क्या है ? ॥५७॥ सिंहवाहिनी,
गवत, विनया, प्रमंकरी इत्यादि पांचसौ उत्कृष्ट विद्यार्थी सात दिनमें विजयंक वश हुई - ॥ १८ ॥ विजयके छोटे भाई त्रिपिष्टने भी जन अति परिमित दिनोंमें विद्याओंको बशमें कर लिया तत्र - राजा - प्रजापति और विद्याधरोंका स्वामी ज्वलननटी इन दोनोंन निश्चितरूपसे उसको भगत् के धुरापर विराजमान कर दिया ||१९||
युद्धमें शत्रुओंका हनन करने लिये जानेकी इच्छा करनेवाले त्रिपिष्टकी विजय - श्रीका मानों कथन ही कर रहे हैं। इस तरहसे पृथ्वी और आकाश मृदंगों के अत्युन्नत शब्दोंसे एकदम पाप्त हो गया ॥ ६० ॥ मंगलसूत्र शुभ शकुनोंसे जिसकी समस्त सेना संतोपको प्राप्त हो गई ऐसा त्रिपिष्ट तोरण और ध्वजाओंसे सुसज्जित नगरसे हाथीपर चढ़कर निकला ॥६९॥ मकानोंके आगे
खड़े होकर स्त्रियोंने अपने नेत्रोंके साथ २ खीलोंकी भरी हुई अंजलियाँ इसके ऊपर इसतरह बखेरीं मानों ये इसकी निर्मल कीर्तिको ही पृथ्वीपर फैला रही है ॥६२॥ हाथियोंकी अंगारियोंपर लगी