________________
महावीर चरित्र । लताके वलयको बढ़ानेवाली जलधारा, यह क्षमा ही है । जगत्के मले आदमियों में से कौन ऐसा है जिसने उसको ऐसा ही नहीं माना है ॥ ५० ॥ यदि कोई अति बलवान् और पराक्रमका धारक भी अत्यंत उन्नत हुए दूसरोंपर कोप करे तो ऐसा करने से उसकी भन्लाई नहीं होती। मृगराज मेघोंकी तरफ स्वयं उछल उछल कर क्या व्यर्थका प्रयास नहीं उठाता ? ॥ ५१ ॥ जो मनुष्य अपने ही पक्षके बलका गर्व करके मूढ़ हो रहा हो, तथा जो अपनी और दूसरेकी. शक्तिमें कितना सार है इसके विना देखे केवल जीतनेकी इच्छासे ही उद्योग करता है वह मनुष्य उस अचिंत्य दशाका अनुभव करता है जोकि वन्हिके सम्मुख पड़कर पतंगको प्राप्त होती है ।। ५२ ॥ हे प्रमोः! जगत्में यदि शत्रु देव और प्रराक्रमकी अपेक्षा तुल्य हो तो नीतिशास्त्रकारोंने उसके साथ संधि करना बताया है । क्योंकि ऐसा करनेसे जो दोनोंकी अपेक्षा दोनोंमें हीन हो तो वह भी सहमा विद्वानोंमें निंद्य नहीं होता, बल्कि पूज्यतम और अधिक उन्नत होता है । ९३ ॥ जिस तरह हाथीकी चिंघाड़ उसके अंतर्मदको और प्रातःकालकी किरणें उदयमें आनेवाले सूर्यको बतलाती हैं इसी तरह मनुष्यकी चेष्टाएं लोकमें होनेवाले अंतरायरहित उसके आधिपत्यको वतला देती हैं ॥ ५४ ॥ करोड़ों सिंहोंका जिसमें वल था इस तरहके उस मृगराजको जिसने अपने आप अंगुलियोंसे नवीन कमलके तंतुकी तरह विदार डाला, जिसने - शिलाको एक ही हाथसे उठाकर छत्रकी तरह उपरको कर दिया
॥.५५ ॥ जिसकी विद्वान् ज्वलननटीने स्वयं जाकर विधिपूर्वक ' . कन्यादान कर उपासना की है, जो धीर त्रिपिष्ठ तेनकी निधि है