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म्हा सर्ग। तरह उन्हें अनुनयादि कर रोक दिया; और रोककर पह अश्वग्रीवसे इस तरह वोला- : - हे नाथ! आप निष्कारण क्रोध क्यों कर रहे हैं ? आपकी सम्पूर्ण नीतिमार्ग में प्रवीण बुद्धि कहां चली गई? संसारियोंका कोपके समान कोई शत्रु नहीं। यह नियमसे दोनों माम विपत्तिका कारण होता है ॥४४-४५|| तृष्णाको बढ़ाता है, धैर्यको दूर करता है, विवेक बुद्धिको नष्ट करता है, मुखस नहीं कहने योग्य कामोंको मी कगता है, एवं शरीर और इंद्रियोंको संतप्त करता है, इस तरह हे स्वामिन् ! यह मनुप्यका उग्र कोप पित्तजरका एक प्रतिनिधि है ॥६॥ आंखोंमें राग (लाली-पुखर्जी) शरीरमें अनेक तरहका कंप; चित्तमें विवेकशून्य चितायें, अमार्गमें गमन और श्रम, इन बातोंको तथा इनसे होनेवाले और भी अनेक दुःखोंको या तो मनुष्यका कोप उत्पन्न करता है या मदिराका मद (नशा) ॥४७॥ संसारमें जो आदमी विना कारण ही दररोज क्रोध किया करता है उसके साथ उसके आप्त जन भी मित्रता रखना नहीं चाहते। विषका वृक्ष, मंद मंद वायुसे नृत्य करनेवाले फूलोंके भारसे युक्त रहता है तो भी क्या भ्रपरगण उसकी सेवा करते हैं ! कभी नहीं ॥४८॥ अमिमानियोंको शत्रु आदिका मय होनेवर आलम्बन, वंशसे मी उन्नत, प्रसिद्ध और सारभूत गुणोंसे विशुद्ध, श्रीमान् जिनसे कि असत्पुरुषों के परिवारने अपनी आत्माको छिया रखा है, तथा यह आपकी इसी तरहकी तलवार मालूम होती है अब मानव-कलंकको प्राप्त करें ॥ १९॥ अमिवांछित कार्य-सिद्धिकी रक्षा करनेवाली, "अंधी आंखोंके लिये सिद्धांजनकी अद्वितीय गोली और लक्ष्मीरूपी