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पांचवा सर्ग ७५ दो। राजाकी इस आज्ञाको पाकर द्वारपाल लौट आया। और दरवाजेपर जाकर उसको भीतर भेज दिया। जिसः समय वह भीतर पहुंचा आश्चंग और हर्पयुक्त नेत्रोंसे समा उसको मुड़ मुड़कर देखने लगी ॥ ९७ ॥.उसने आकर आदरस-अदबसे महाराजको नमस्कार किया । महाराजने भी अपने पासमें लगे हुए एक सुवर्ण सिंहासनपर उसको बैठनके लिये हायसे इशारा किया। बैठाकर, और उसको कुछ विश्रांत देखकर महारान बोले ॥९८॥--"इस सौम्य आकारको जो कि अपने समान दूसरेको नहीं रखता-धारण करनेवाले आप कौन हैं ? और इस भूमिपर किसलिये आये हैं.. तथा. यहाँपर किस प्रयोजनसे आना हुआ.है ? " स्वयं महारानके • इस पूछनेपर आगन्तुकने इस तरह कहना शुरू किया ।। ९९ ॥ ..
. इसी क्षेत्रमें चांदीके उन्नत :शिखरोंसे युक्त "विजयाई" नामका एक पर्वत है। जिसपर नरेन्द्र और विद्याधर लोक निवास करते हैं। वह दो श्रेणियोंसे भूषित है-उत्तर श्रेणी : और दक्षिण श्रेणी ॥ १०० ॥ दक्षिण श्रेणिमें स्थनुपुर नामका एक नगर है।। जिसका शासन उसमें निवास करनेवाला. इन्द्रके समान क्रीड़ा करनेवाला विद्याधरोंका स्वामी करता है उसका नाम ज्वलनजटी है ॥ १०१॥ आपके वंशमें - सबसे पहले बाहुबली हो गये हैं.। वे महात्मा तीर्थकरों से सबसे पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेवके पुत्र थे। जिन्होंने अपने बाहुवलसे क्रीडाकी तरह मरंतेश्वरको पीड़ित कर समस्त सम्पत्तिके साथ साथ छोड़ दिया .. १०२.हे राजन्ः। विद्याधरोंको स्वामी-ज्वलनगंटीभी, कच्छराजक.. पुत्र नमिके.चंद्रकिरण-सहा निर्मल कुलको अलंकृत करता है।