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थे. ऐसे मालूम पड़ते थे मानों ये राजपुत्र नहीं किंतु मार्गाने अगह जगह पर लगे हुए स्वयं राजाके...प्रतिविम्ब ही हैं ॥ ३ ॥ . ' :: विधाके प्रभावसे बनाये गये अद्भुत महलोंके कंगूरोंके कोनों पर बैठी हुई विधारियोंके चंचल नेत्रोंके साथ साथ, सहसा उटकर विद्याधरोंके स्वामीने अपनी प्रीतिपूर्ण दृष्टिको फैलाकर भूपालको देखा ॥ ४ ॥ धरणीनाथ-अभापति और धरणीधरनाथ-विज़याधका स्वामी ज्वलनजटी दोनों ही अत्यंत उत्सुक अपनी २ सवारीसे खुशीसे फुतीके साथ निकटवर्ती सुंदर भटोका हस्तावलंबन लेकर दूरसे ही उतरे । और दोनों ही एक दूसरेके सन्मुख आधा आधा चलकर आये । अर्थात् उधरसे ज्वलनजटी उतरकर आया और इधरसे प्रजापति गया इस तरह दोनोंका वीचमें मिलाप हो गया ॥५॥ यद्यपि इन दोनोंका सम्बन्धरूपी चंदनका वृक्ष बहुत पुराना पड़ गया था तो भी दोनोंने मिलकर गाढ़ आलिंगनके अमृतजलसे उसको सींचा निससे वह फिर हरामरा हो गया। दोनों राजाओंके वाज: चंद्रों में लगी हुई मणियों से जो किरणें निकलती थीं उनसे ऐसा मालूम पड़ता था मानों उस सम्बन्धरूपी चंदनके वृक्षसे ये नवीन अंकुर निकल रहे हैं ॥ ६ ॥ ज्वलनजटीके पुत्र अर्ककीर्तिनं यद्यपि उस समय पिताने आंख बगैरहके इशारेसे कुछ बताया नहीं था तो . भी दूरसे ही शिरको नमाकर नमस्कार किया। ठीक ही है- जो
महा पुरूप होते हैं उनका महात्माओंमें स्वभावसे ही विनय हो नाता है. ॥ ७ ॥ विनय और त्रिपिट, लक्ष्मी प्रताप वल शूवीरेता बुद्धि और विद्या आदिकी अपेक्षा सम्पूर्ण लोगोंसे. अधिक थे तो भी इन दोनों भाइयोंने साथ -२ उस विचारोंके स्वामीको प्रीतिसे