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महावीर चरित्र ।
प्रभामं किया । जो महान पुरूप होते हैं व गुणों में गुरुजनोंसे अधिक - होनेपर भी नम्र ही रहते हैं ॥ ८॥ अत्यंत शोभायुक्त ये दोनों भाई खूब ऊंचे शरीरके धारक और कामदेव के समान मनोहर निर्मत्र चंद्रमाके समान कीर्तिके धारक अर्ककीर्तिका आलिंगन कर प्रसन्न हुए । प्रिय बंधुओंका संबन्ध किसके हर्पको नहीं बढ़ाता है ॥२॥ मनुष्य--भूमिके और विजयार्धके स्वामियोंके मुखकी चेष्टासे जब यह मालुम हो गया कि इन दोनों के मनमें बोलनेकी इच्छा है तब राजा प्रजापतिका अत्यंत प्रिय मंत्री इस तरह बोला क्योंकि जो कुशल मनुष्य. होते हैं वे योग्य समयको समझा करते हैं ॥१०॥ " आज कुलदेवता अच्छी तरह प्रसन्न हुए, और शुभ कर्मका उदय हुआ । आपका जन्म सफल है कि जिन्होंने पूर्व पुरुषोंसे चली आई लड़ाके समान स्वता (निजत्व ) को जो किसी तरह छिन्न हो गई थी तो भी उसको फिरसे अंकुरित कर दिया || ११|| - जिस तरह कोई योगी, प्रतिपक्षरहित, साधारण मनुष्योंके लिये दुष्प्राप्य, आत्मस्वरूप केवलज्ञानको पाकर सम्पूर्ण मुत्रनोंक लिये मान्य हो जाता है, तथा सर्वोत्कृष्ट और ध्रुवपदको प्राप्त हो जाता है । हे देव ! प्रजापति भी आपको पाकर ठीक वैसा ही हो गया है " ॥१२॥ मंत्री जब इस प्रकारसे बोला तब उसी समय उसके वाक्योंको रोककर विद्याधरोंका स्वामी स्वयं इस तरह कहने लगा। बोलते समय इसके दांतमेंसे जो चंद्रमा के समान निर्मल किरणें नीकलीं उनसे वह ऐसा मालूम पड़ने लगा मानों खिले हुए कुंडके पुप्पोंसे अंतरंग में बैठी हुई वाग्देवता - सरवस्तीकी पूजा कर रहा है ॥ १३ ॥ ज्वलनजी बोला " हे विद्वानों में श्रेष्ठ! तुम इस तरहके वचन मत बोलो।