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चंडा. सर्ग |
८३ अंगारोंको बखेर रहा है । उस समय उसके मुखपर पसीना के जलकी बहुतसी छोटी २ बिन्दु इकट्ठी हो गई। मालूम पड़ने लगा मानों वह बिंदुओंका समूह नहीं है उसका कर्ण भृषण है। वज्रके समानघोर नाको करता हुआ वह बोला - "हे विद्यावरो ! जो काम उस अघम विद्याधर ज्वलननटीने किया है क्या तुम लोगोंने उसको नहीं सुना! देखो ! उसने जीर्ण तृणकी तरह तुम्हारी अवहेलना करके, जगमें प्रधान भूत और मनोहर कन्या एक मनुष्यको दे डाली ॥२९॥ जब अव्वकंधरने हर एकके मुखकी तरफ करके उसके विषय में कहा तब उसके वचनोंसे सम्पूर्ण सभा क्षुब्ध होकर घूमने लगी । टस समय हर्षक नष्ट हो जानेसे समाने उस दर्शनीय लीला - अवस्थाको धारण क्रिया जोकि कल्लकालके अंत समय में पबनसे क्षुब्व हो जानेवाले समुद्रकी हो जाती है ॥ २६ ॥ कोपसे समस्त जगत्को कँपाता हुआ वह नीरथ मनुष्योंका -भूमिगोचरियों का क्षय करनेके लिये चला। मानों जनताका क्षय करनेके लिये हिमालय चला। यद्यपि वह नीकर था तो भी हिमालय के समान मालुम पड़ता था । क्योंकि उसकी और हिमालयकी कई बातें समान मिटती थीं। प्रथम तो वह हिमालयकी तरह स्थितिमानोंका (मर्यादा के पालन : करनेवालोंका और हिमालयके पक्ष में- पर्वतों का ) अमेश्वर था । दूसरे : अत्यंत अनुलंब्य उन्नति (वैपदकी अधिकता तथा हिमालयके पक्ष में
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टंचाई ) को धारण करनेवाला था। तीसरे, इसने अन्य स्थानपर 1 नहीं होनेवाले महान् सत्व (सत्यगुण अथवा अत्यंत उद्योग याः
बल और हिमालय के पक्षमें जंतुओं) को धारण कर रखा था ।
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६ ॥ २७ ॥ चित्रांगद खून किये गये अपने द्वारा मारे गये शत्रुओंके
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