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महावीर : चरित्र ।
पुरुषश्रेष्ठ त्रिपिष्टका विजयगोपी पहले ही अप्रकटरूपले स्वयमेत्र इस तरह: आलिंगन करने लगी जिस तरह कोई अभिसारिका स्त्री जिसकी कि बुद्धि कामदेव से व्याकुल हो उठी हो अपने मनोभिलषित पुरुषका आलिंगन करै ॥ ६ ॥
एक दिन राजा सिंहासनके ऊपर, जिसमेंसे कि लगी हुई पद्यरंग (माणिक) मणियोंकी किरणोंके अंकूर निकल रहे थे, सभाभवन में अपने दोनों पुत्र तथा दूसरे 'राजकीय लोगोंके साथ आनंदसे बैठा हुआ था ॥ ६७॥ उसी समय एक बुद्धिवान् प्रांतीय मंत्रीने राजासे अपने कर कमलोंको मुकुलित करके हाथ जोड़कर 'और नमस्कार कर प्रकट रूपमें इस बातकी सुचना की कि है 'पृथ्वीनाथ ! आपकी असिलताकी तीक्ष्ण धारसे पृथ्वी सब जगह सुरक्षित है तो भी एक बलवान सिंह उसको बाघा दिया करती है । अहो ! जगत् में कर्मरूप शत्रु बड़ा बलवान् है ।। ६८-६९ ॥ उसको देखकर ऐसा भ्रम हो जाता है कि क्या सिंहके उलसे स्वयं यमराज पृथ्वी हिंसा कररहा है ? अथवा कोई महान असुर है! यद्वा आपके पूर्व जन्मका शत्रु · कोई देव है ! क्योंकि उस तरह का कार्य सिंह नहीं हो सकता ॥ ७० ॥ शहरके सम्पूर्ण लोगोंने उसके भय से अपने स्त्रीपुत्रोंकी तरफ मी दृष्टि नहीं दी और दे आपके शत्रुओं की तरह पलायन कर गये हैं-भाग गये है। संसारियोंको अपने जीवनसे अधिक प्रिय कुछ भी नहीं है ॥७१॥ सिंहके निमित्तसे प्रजाको नो व्यथां हो रही थी उसको मंत्रीके वचनोंसे सुनकर राजाको उस समय हृदय में बहुत संताप हुआ । अहो ! यह बात निश्चिंत है कि जगत्को उसका दोष ही संतापका देने
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