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महावीर चरित्र । “वेली बुढ़ापेने अभिभव-तिरस्कार कर दिया है। इस विषयमें किसको 'शोक न होगा? ॥ १६॥ १७ ॥ वृद्धावस्थाने आकर समान, इन्द्रियोंकी शक्तिरूपी संपत्तिसे इसको दूर कर दिया है आश्चर्य है कि तो मी यह जीनेकी आशाका त्याग नहीं करता है। ठीक हीहै जो वृद्ध होता है उसका मोह नियमसे बड़ाही जाता है ॥ १८ ॥ पेंड ३: पर गर्दनको नमाकर-झुकाकर दोनों शिथिल भौहोंकों दृष्टिसे रोककर यह बड़े यत्नसे मानो मेरा नवीन योवन कहां गिर गया उसको पृथ्वीमें ढूंढ़ रहा है ॥ १९ ॥ अथवा जन्म मरण रूपी. -वनका मार्ग विनष्ट है। उसमें अपने २ कर्मक फलके अनुमार निरंतर भ्रमण करनेवाले शरीरधारियोंका-संसारिओका क्या कल्याण हो सकता है। इस प्रकार राजा वैराग्यको प्राप्त हो गया ॥२०॥ उसने यह समझकर कि राज्यसुख ही परिपाकमें दुःख देनेवाला . बीन है, उसका-राज्यसुखका त्याग कर दिया। टोक ही है-जिन । महापुरुषोंने संसारकी समस्त परिस्थितिको जान लिया है क्या उनको विपयोंमें आशक्ति हो मक्ती है? ॥ २१॥ स्वच्छ उत्रके • मूल-राज्यासनपर अपने छोटे भाई विशाखभूतिको बैठाकर, और युवराजके पदपर पुत्रको नियुक्त कर, "वैमवमें निस्पृहता रखना ही सज्जनोंका भूषण है" इसलिये चारसौ राजाओंके साथ श्रीधर आचार्यके चरणकमलोंके निकट जाकर, अजर अमर पढ़के प्राप्त करनेकी इच्छासे पृथ्वीपतिने जिन दीक्षाको धारण कर लिया ॥२२ | २३॥
। यहांपर श्लेश है, जिससे बल शब्दके दो अर्थ होते हैं, एक पराक्रम दूसरा ऐसा बुढ़ापा कि जिसके निमित्तसे शरीरमें सिकुड़न" पड़ जाय ।