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• चौथा सर्ग। [४९ है ॥ ३७. ॥ आप नीतिमार्गके जाननेवालोंमें प्रधान माने जाते हैं। आपको इस तरह स्त्रीका मनोरथ पूर्ण करना युक्क नहीं है। क्योंकि जो असत-पुरुषोंके वचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है वह अवश्य विपत्तियों का पात्र होता है ॥ ३८ ॥ वह वनकी रमणीयता पर आशक्त है, अतएव यदि आप मागेंगे तो भी वह उसको देगा नहीं। हे नाथ ! आप ही निष्पक्ष दृष्टिसे विचारिये कि अपनेर अमिमतपर मला किसकी बुद्धि लुब्ध नहीं होती ? ॥ ३९ ॥ वचनके पराधीन प्रियासे ताड़ित हुए आप वनको न पाकर कोपको प्राप्त होंगे, और फिर रोपसे प्रतिपक्षके पक्षकी कुछ भी अपेक्षा न कर हरण करनेके लिये आप प्रवृत्त होंगे ॥ ४० ॥ उस समय राज्यमें जो २ मुख्य पुरुष हैं वे सभी 'ये मर्यादाके तोड़नेवाले हैं। यह समझकर तुमको छोड़कर उस वीरका ही साथ इस तरह देंग-उसीमें मिल जायगे जिस तरह लोकमें प्रसिद्ध, नद समुद्र में मिल जाते हैं ॥ ११॥ आपन दूसरे राजाओंको जीत लिया है तो भी युद्धमें युवराजके सामन आप अच्छे नहीं लगेंगे ! चंद्रमा यद्यपि कमलवनको प्रसन्न करनेवाला है तो भी दिनकी आदिमेंप्रातःकालमें किरणोंको विकीर्ण करनेवाले--सब जगह फैलानेवाले सहस्त्र रश्मि-सुर्यके सामने वह अच्छा नहीं लगता ॥४२॥ अथवा आपने उसको युद्धकी रंगभूमिसे देववश या किसी भी तरह परास्त भी कर दिया तो भी जगत्में बड़ा भारी. लोकापवाद इस तरह व्याप्त हो जायगा जिस तरह रात्रिमें निविड़ अंधकारका समूह व्याप्त हो जाता है ।। १३ ।। इस प्रकार, नीतिका परित्याग न करनेवाले, विषाकमें रमणीय, विद्वानोंको हितकर, कानोंको रसाय