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चौथा सर्ग।
[५१ रहते हुए आपको यह प्रयास करनेकी क्या आवश्यकता है ? हे राजन् ! मुझको भेनिये मैं उसको अवश्य जीतूंगा ॥ ५० ॥ किसी प्रतिपक्षीको न पाकर ही मेरा प्रताप बहुत दिनसे मेरी मुनाओं में ही लीन हो रहा है । हे नरनाथ ! निसको आपने कभी नहीं देखा है उसीको वहां आप प्रकट करें । अर्थात् मेरा प्रताप आपने अमी तक देखा नहीं है अतएव इस वार उसीको देखिये ॥ ११ ॥ इस तरहकी सगर्व वाणीको कह कर भी पीछेसे उसने अपने पूर्व शरीनको नन्न कर दिया । अर्थात् राजाके सामने शिरको नवा दिया । राजाने भी शत्रुके ऊपर उसीको भेना, । विश्वनंदीने भी अपने उपवनकी अच्छी तरह रक्षा करके शत्रु पर चढ़ाई कर दी ।। ५.२॥
कुछ थोड़ेस-परिमित दिनोंमें अपने देशको पार करके विश्वनंदी मार्गमें जोर अनेक राना नीतिसे इंसको आकर प्राप्त हुए उनके साथ २ . शीघ्र ही शत्रु देशके समीप जाकर पहुंच गया ॥ १३ ॥ एक दिन . -गुवराजने निसकी सारी देहमें घावोंक कर पट्टियां बंधी हुई थीं ऐसे विश्वस्त वनपालको ड्योढ़ीवानके साथ २ समामें प्रवेश करते हुए दूर हीसं देखा ॥ ५४ ॥ उसने "सिंहासन पर बैठे हुए और अनाथ, वत्सल नाथको भूमिमें शिर रखकर नमस्कार किया । और उनके "पास पहुंचकर विश्वनंदीने अपनी प्रिय दृष्टिसे नो स्थान बताया "वहां बैठ गया ॥ १५॥ यद्यपि पहले कुछ देर तक बैठकर अपने घायल शरीरसे ही वह निवेदन कर चुकं था तो मी मानों दुहरानेके लिये ही उसने राजाके पूछनेपर अपने आनेका कारण इस तरह बताया ॥५६॥ "आपका उपवन आपके प्रतापके योग्य है; परंतु महारांनकी “आज्ञासे हम लोगोंकी अबहेलना करके विशाखनदीने उसमें प्रवेश किया