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चौथाः सर्गः।
जिससे कि उसका हाय दीप्त होने लगा और कोपसे. शत्रुपर टूट पड़ा । भावार्थ-विश्वनंदी खाई और कोटको लांघकर जब भीतर पहुंचा तत्र शत्रुको सेनासे उसकी मुठभेड़ हुई जिसमें शत्रुकी सेना भान हुई, और अंत में इसका भी खड्ग मग्न हो गया। खनके टूटते ही एक पत्थरके खमको उखाड़कर और उसीको लेकर यह शत्रुपर टूटा ।। ७६ ।। उप्र पराक्रमके धारक विश्ढनंदीको यमराजकी तरह 'आता हुआ देखकर विशाखनंदीका सारा शरीर कांपने लगा, मयसे शरीरकी द्युति-कांति मंद पड़ गई, और झटसे कैयके पड़पर चढ़कर बैठ गया ॥ ७७ ॥ परन्तु जब उस महाबलीने मनमें विचार करनेके साथ ही उस कैथके महान् वृक्षको भी उखाड़ डाला, तंब अशरण होकर मयस त्रासके राससे हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ विशाखनंदी इसीकी शरणमें आया ॥ ७८ ॥ विशाखनंदीको सत्वहीन तथा पैरोंमें पड़ा हुभा देखकर विश्वनंदीको लजा आगई। यह निश्चय है कि-जिनकी पौरुष निधि प्रख्यात है उनका शत्रु यदि मनमें भी नत्र हो जाय तो उनको स्वयमेव लज्जा आ नाती है। ७९ ॥ रत्नमुकुटस भूपित विशाखनंदीका मस्तक जो कि नन्न हो रहा था उसको विश्वनंदीने दोनों हाथोंसे ऊपरको उठा दिया
और उसको अभय दिया। जिन महापुरुषोंका साहस बढ़ा हुआ हो उनका शरणागों के विषयमें यही कर्तव्य युक्त है ।। ८० ॥
. "मैं इस तरहके कामको जो कि मेरे लिये अयुक्तं था करके विशाखभूतिके सामने किस तरह रहूंगा " ऐसा विचार करके और हृदयमें लज्जाको धारण करके विश्वनंदी. तप. करनेके. लिये. राज्य छोड़कर घरसे निकल : गया । ८१. || मुनियोंके. चारित्रका