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तीसरा सर्ग |
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दूरसे ही पर्वत समान ऊंचे हस्ती परसे उतर पड़ा उसने मानो इस उक्तिको व्यक्त कर दिया कि विनयरहित श्री किसी भी कामकी
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नहीं ||३|| छत्र आदिक राज चिन्होंको दूर कर नौकरोंके हस्तावलंबनको भी छोड़कर उसने वन में प्रवेश किया || ४ || वहां लाल अशोक वृक्ष के नीचे निर्मल स्फटिक शिला पर मुनिको इस तरह बैठे हुए देखा, मानो समीचीन धर्मके मस्तक ही बैठे हों ॥ ५ ॥ राजाने अपने दोनों हाथोंको कमल कलिकाके सदृश बनाकर अपने मुकुटके पास रख लिया, और महामुनिको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया ॥ ६ ॥ वह राजाओंका स्वामी उनके निकट पृथ्वीपर ही बैठा। इसके बाद हाथ जोड़कर नमस्कार करके हर्षित चित्तसे मुनिसे इस प्रकार वोला- ॥७॥ हे भगवन् ! वीतराग अर्थात् मोहके नष्ट करनेवाले आपके सम्यग्दर्शनके समान दर्शन से भव्य प्राणियोंकी क्या मोक्ष नहीं होती ! अवश्य होती है ॥ ८ ॥ हे नाथ ! मुझे इसके सिवाय और कुछ आश्चर्य नहीं है कि आपने अकाम होकर मुझको पूर्णकाम किस तरह कर दिया ? अर्थात् काम नाम कामदेवका मी है और इच्छाका भी है। मुनि कामदेवसे रहित हैं, उनके दर्शनसे सम्पूर्ण इच्छाएं पूर्ण होती हैं ॥ ९ ॥ आप सम्पूर्ण मंन्य जीवोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपसे मैं अपनी भवसंतति - पूर्व भवको सुनना चाहता हूं ॥ १० ॥ इस प्रकार स्तुतिकर जब राना चुप हो गया
तवं सर्वाधिरूप नेत्रके धारक यति इसतरह बोले ॥ ११ ॥ हे
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भव्य चूड़ामणि ! मैं तेरे जन्मान्तरोंको अच्छीतरह और यथावत् कहता हूं सो तू उनको एकाग्र चित्तसे सुन ॥ १२ ॥ :