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तीसरा सर्ग।
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तो मी जब मरतकी सेनाकी सुंदरिओने उनको अपना कर्णभूषणं बना लिया तब वे ही दीप्त प्रकाशित होने लंगे ॥ ५९ ॥ समुद्रके किनारे पर जो फेनराशि थी उसके कारण भरतकी सेना के लोगोंको समुद्र ऐसा दीखा-मालून पड़ा मानों पहले माकी किरणोंको पीकर पीछेसे उगल रहा हो ॥६० ॥ मरतके हस्ती रणका आरम्भ होने पहले ही समुद्र में जो जलकुंजर उकरते थे उनके साथ मदके आवंशसे क्रुद्ध होकर लड़ने लगते ॥ ६१ ॥ साम, दाम, दण्ड, भेदमें पौरप रखनेवाला यह भरत स्कुरायमाण चक्रकी श्रीको धारण करनेवाली बाहुसे छह खंडके मंडलसे युक्त पृथ्वीका शासन करता था ।। ६२ ॥ उसकी पट्टानी प्रियाका नाम धारिणी था। । यह तीन लोकके सौंदर्यकी सीमा थी। पृथ्वीपर इसका धारिणी यह नाम जो प्रसिद्ध हुआ था सो इसीलिये कि वह गुण-धारिणीगुणोंको धारण करनेवाली थी ॥ १३ ॥ पूर्वोक्त देव-पुरुरवाका जीव स्वर्गसे उतरकर इन्ही दोनों महात्माओंका पुत्र हुआ। उसका नाम मरीचि रक्खा गया । मरीचि अपनी कांतिसे उदयको प्राप्त होनेवाले सूर्यकी मरीचि-किरणोंको लज्जित करता था ॥ ६४ ॥ स्वयंभू-स्वयंवुद्ध पुरुदेव आदिनाथ स्वामीको स्वर्गसे आकर लोकांतिक देवोंने जब संवोधा, और संबोधित होकर जब उन्होने दीक्षा ली तब उनके साथ मरीचिने भी दीक्षा ले ली। परंतु वह दीनदुःसह परीपहोंका सहन न कर सका क्योंकि जिनका चित्त अत्यंत धीर है वे ही निग्रंथ लिंगको धारण कर सकते हैं-जो कातर हैं वे इसको वारण नहीं कर सकते ॥ ६५-६६ ॥ अनेक प्रकारको तर्क वितर्क करनेवालोंके गुरु इस. मरीचने संसारका मूलोच्छेदन करने में समर्थ