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तीसरा संर्ग ।
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ओंके विमान में बैठकर, देवोंपनीत भोगोंकों भोगकर काल यापन करने लगा || ७७ || दो सागर की आयुके पूर्ण होनेपर ये भोग कहीं छूट न जांग इस भय से इसके हृदयमें अत्यंत शोक उत्पन्न हुआ | मानों इस शोकका मारा हुआ ही स्वर्गसे गिर पड़ा ॥ ७८ ॥ स्थूणा गौर नामके नगर में भारद्वाज नामका एक उत्तम ब्राह्मण रहता था । राजहंसकी तरह इसके दोनों पक्ष शुद्ध थे । अर्थात् जिस तरह राजहंसके दोनो पक्ष - पंख शुद्ध स्वच्छ होते हैं उसी तरह इसके भी माताका और पिताका दोनों पक्ष शुद्ध थे ||७९ || इसके घरकी भूषण पुष्पदंता नामकी गृहिणी थी। यह अपने दांतोंकी शोभासे कुंद्रकलिकाओंकी स्वच्छ कांतिका उपहास करती थी ॥ ८० ॥ वह देव स्वर्गसे उतरकर इन्हीं दोनोंके यहां पुप्पमित्र नामका पुत्र हुआ। भारद्वाज और पुष्पदंत दोनों आपस में सदा अनुरक्त रहते थे । अतएव मालुम होता है कि मानों उनके मोहरूप वीजसे यह अंकुर उत्पन्न हुआ हो ॥ ८१ ॥ एक सन्यासीकी संगतिको पाकर स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से इस अविवेकीने हठसे बाल्यावस्थामें ही दीक्षा ले ली ॥८२॥ चिरंकालतं तप करके मृत्युके वंश हुआ जिससे दो सागरकी आयुसे ईशानं स्वर्गमें जाकर देव हुआ || ८३ ॥ कंदर्प देवोंके द्वारा गंजाये गये हरएक प्रकारके बाजे और उनके गान तथा गानके क्रमके अनुसार अप्सराओंके मनोहर नृत्यको देखते हुए वह उस स्वर्ग में रहने लगा ॥ ८४ ॥ पुण्यकें क्षीण होनेपर
स्वर्गने उसको इस तरह गिरा दिया जिस तरह दिनके बाद सोनेवाले पीलवानको मत्तं हस्ती गिरा देता है । भावार्थ- जिस तरह रात्रिमें नींदसे झोका लेनेवाले पीलवानको मत्त हस्ती अपने
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