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तीसरा संर्ग
[ ३३ एक दिन वह सिंह जंगली हस्तिराजों को मारकर श्रम - थकावटसे आर्तुर होकर गुफाके द्वारपर सो गया। मालूम पड़ने लगा मानों पर्वतका साधिक्षेत्र हास्य ही हो ॥ २१ ॥ उसी समय अमितकीर्ति और अमितप्रभु नामके दो पवित्र चारण मुनिओंने आकाश मार्गले जाते हुए उप सिंहको उसी तरह सोता हुआ देखा || २२ || आकांश विहारी व दोनों यतिराज आकाशसे उतरकर सप्तपर्ण वृक्षके नीचे एक निर्मल शिला पर बैठ गये ॥ २३ ॥ विद्वान और अकां- नि भय वे दोनों ही चारण मुनि अनुकंग- दयासे सिंहको बोध देनेके लिये अपने मनोज्ञ कंसे ओजस्विनी प्रज्ञप्ति विद्याका पाठ करने लगे ॥ २४ ॥ उनकी उस ध्वनिप्त-विद्याके पाठसे मृगराजका निद्राप्रमाद नष्ट हो गया । क्षणभर में उसकी साहजिक क्रूरता दूर हो गई, और उसके परिणाम को नल हो गये || २५ || कानके मूलनें अपनी पूंछको रखकर वह सिंह गुफाके मुखसे बाहर निकला | निकलकर अपने मीरण आकारको छोड़ कर मुनि के निकट जां
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भावसे दोनों मुनियों के सन्मुख मुखके दर्शन में प्रीति प्रकट कर थे ॥ २७ ॥ उदार बुद्धि अमिनकीर्ति उसको देखकर इस प्रकार बोले कि - अहो मृगेन्द्र ! समीचीन मार्गको प्राप्त न करके ही तू ऐसा हुआ है ॥ २८ ॥ हे सिंह ! यह निश्चय समझ कि तू निर्भय है । तूने केवल यहीं सिंहत्व घारग नहीं किया है; किंतु दुरंत और अनादि संसाररूप बननें भी धारण किया है ॥ २९ ॥ यह जीत्र, परिणामी और अपने कर्मोका कर्ता तथा भोक्ता होकर भी, शरीर मात्रं - शरीर, प्रमाण और 'अनादि अनंत हैं । ज्ञानादि गुण
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म० चं० ३ :
बैठा ॥ २६ ॥ वह अत्या शांत बैठ गया । उसके नेव मुनियोंके