________________
दूसरा सर्गः
[ २७
ही हो गया हो ॥ ४९ ॥ ढाकके फूल निरंतर फूलने लगे । जो ऐसे मालूम पड़ते थे मानो कामदेवरूपी उग्र राक्षसने विरहपीड़ित मनुष्योंके मांसको नोच २ कर यहां खूब खाया और जो खाते २ शेष वत्र गया है उसको फूलोंके व्याजसे सुखाने के लिये यहां फैला दिया है । भावार्थ - इस वसंत के समय में डाक फूलने लगे। जिनको देखकर विरही मनुष्योंको 'कामदेवकी पीड़ा होने लगी । और इस पीड़ाके निमित्तसे उनका मांस सुखन लगा ॥ १० ॥ विलासिनियोंके मुखकमलकी आसवका पानकर केसर- पुन्नाग वृक्ष फूलने लगा। उसके पास शब्द करते हुएगुंजार करते हुए मधुपान करनेवालोंका - श्रमरों का समूह आकर संतोपको प्राप्त हुआ । ठीक ही है, जो समान व्यसनके सेवन करनेवाले होते हैं वे आपस में एक दूसरे के प्रेमी हो ही जाते हैं ॥५१॥ . उस बनके भीतर; जो कि कोयल तथा सारस आदिकी ध्वनिसे, और उसके साथ भ्रमरोंके स्वने गीतोंसे शोभित हो रहा था, दक्षिण वायुरूपी नृत्यकार कामानुबंधी नाटकको रचकर लतारूपी अंगनाको ' नत्राने लगा ॥ ५२ ॥ सूर्य सबकी सब पद्मिनियोंको बर्फसे मुर्झाई हुई देखकर क्रोवसे दक्षिणायनको छोड़ हिमालयकी तरफ मानी उसका निग्रह करनेके ही लिये लौट पड़ा। भावार्थ- सूर्य दक्षिणायन से -उत्तरायण पर आ गया और अब हिमका पड़ना कम हो गया ॥ १३॥ कन्नेर उज्ज्वल वर्णकी शोभासे तो युक्त हो गया; परन्तु उसने सौरम
कुछ
भी नहीं पाया। ठीक ही हैं, जगतमें इस बातको तो सभी लोग १ शब्दविशेष-जैसा कि वांसुरीसे अथवा हवा भरजानेपर वांसोंसे निकलता है ।