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• दूसरा सर्ग ।
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करानेवाले इस अनर्गल मार्गका आपने किस तरह उपदेश किया ! ॥ २५ ॥ आपसे जो याचना की जाती है आप उसको सफल करते हैं। आपको नो प्रणाम करते हैं उनकी पीड़ाओंको आप शीघ्र ही दूर करते हैं । इसलिये हे आर्य ! मैं आपसे प्रणाम करके यही याचना करता हूं कि " मैं भी आपके साथ दीक्षा ही लूंगा और दूसरा कार्य न करूंगा"। ऐसा कहकर वह राजकुमार अपनी स्त्रीके साथ खड़ा हो गया ॥ २६ ॥ जत्र विद्वद्वर महाराजने यह निश्चयसे समझ लिया कि पुत्र भी दीक्षा ग्रहण करनेके निश्चयपर दृढ़ आरूढ़ है तब वे इस प्रकार बोल्नेका उपक्रम करने लगे। जिस समय महाराज बोलने लगे उस समय उनकी मोतियोंके समान दंतपंक्तिसे स्वच्छ प्रभा निकल रही थी। प्रभापंक्तिसे उनके अधर अति शोभायमान मालुम पड़ते थे। महाराज बोले कि । २७ ॥ " तेरे विना कुत्रक्रमसे चला आया यह राज्य विना मालिकके योंही नष्ट हो जायगा । यदि गोत्रकी संतान चलाना इष्ट न होता तो साधु पुरुष भी पुत्रके लिये स्पृहा क्यों करते ! ॥ २८ ॥ पिताके वचन चाहे अच्छे हों चाहे बुरे हों उनका पालन करना ही पुत्रका कर्तन्य है --- दूसरा नहीं । इस सिद्ध नीतिको जानते हुए भी इस समय तेरी मति अन्यथा क्यों हो गई है ! ॥ २९ ॥ 'नंदिवर्धन स्वयं मीं तपोवनको गया और साथमें अपने पुत्रको भी ले गया, अपने, कुलका उसने नाम भी बाकी नहीं रक्खा' ऐसा कह २ कर लोक मेरा अपवाद करेंगे। इसलिये हे पुत्र ! अभी कुछ दिन तक तू वरमें ही रह " ॥ ३० ॥ ऐसा कहकर पिताने अपने पुत्रके मस्तकपर अपना मुकुट रख दिया। इस मुकुटमेंसे निकलती हुई चित्र
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