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महावीर की साधना का रहस्य
खोज लेते हैं, सुषुम्ना के मार्ग को खोज लेते हैं, हमारा प्राण, हमारा श्वास उस मध्य मार्ग से प्रवाहित होने लग जाता है । जो धार उधर जा रही थी, 'जो धार इधर जा रही थी, जैसे-तैसे प्रवाहित हो रही थी, उसको हमने बाएं जाने से रोका, दाएं जाने से रोका और ठीक बीच में बहाना शुरू कर दिया । हमारी शक्ति जो दाएं-बाएं बिखर रही थी, वह केन्द्रित होकर हमारे भीतर मध्य भाग में प्रवाहित होने लगी यानी श्वास का प्रवाह जो इड़ा और पिंगला में बहता था, उसे हमने समेटकर मध्य मार्ग में सुषुम्ना में प्रवाहित करना शुरू कर दिया । सुषुम्ना का मुख खुल गया, उन्मुक्त हो गया । श्वास और प्राण का उसमें संचार होने लगा । तब मन और प्राण विलीन हो गये, शान्त हो गये । उसमें उनका विलय हो गया । मन, प्राण और इन्द्रियों के विलीन होते ही चंचलता समाप्त हो गयी। मन की चंचलता और इन्द्रियों की चंचलता समाप्त होते ही अन्तर्मुखता की स्थिति प्राप्त हो जाती है । यह है अन्तर्मुखता । आध्यात्मिक अन्तर्मुख होता है और भौतिकवादी बहिर्मुख ।
आध्यात्मिक का तात्पर्य क्या है ? जो भीतर की ओर जाने वाला है वह आध्यात्मिक | अध्यात्म का अर्थ होता है भीतर । बहिर् का अर्थ होता है बाहर | आध्यात्मिक व्यक्ति यानी भीतर की गहराई में जाने वाला व्यक्ति, अन्तर्मुख व्यक्ति । उसकी प्राण-शक्ति का मुंह खुल जाता है । उसकी अन्तर् यात्रा, भीतरी यात्रा शुरू हो जाती है ।
जो व्यक्ति अन्तर्मुख नहीं है, बहिर्मुख है, उसकी सारी शक्तियां बाहर की ओर प्रवाहित होती हैं। बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली शक्तियां उसके लिए लाभदायी नहीं होतीं । हमारे आचार्यों ने इसे बहिर्मात्मा और अन्त -- अत्मा- इन दो शब्द से प्रकट किया है । बहिर्मुख यानी बहिर्षात्मा । अन्त र्मुख यानी अन्तर्मात्मा । जो व्यक्ति केवल शरीर को ही सब कुछ समझता है, स्थूल शरीर को सब कुछ मानकर चलता है, वह होता है बहिर्मात्मा । जो सुख दुःख, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों के सारे आघातों को ही अपना वास्तविक जीवन मानकर चलता है, वह होता बहिर्मुख । अन्तर्मुख कौन होता है ? जिसने समझ लिया कि शरीर मेरा नहीं है । मैं शरीर से भिन्न हूं । जिसे शरीर से आत्मा की भिन्नता की अनुभूति होती है, वह अन्तअत्मा हो जाता
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है ।
एक व्यक्ति ने धोने को कपड़ा दिया । धोबी ने धोकर साफ कर दिया । उसने उसे पहन लिया। एक दिन वह आ रहा था बाजार से । दूसरा व्यक्ति