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(२६) शंकराचार्य का “अपूर्व" के सबंध में मत है कि बिना अपूर्व के नष्ट होने वाला कर्म कालान्तर में फलप्रसू नहीं हो सकता। अतः कर्म की सूक्ष्म उत्तरावस्था अथवा फल की पूर्वावस्था ही “अपूर्व" है। (शांकर भाष्य ३.२.४0) उद्योतकर ने “अपूर्व" के सिद्धान्त की आलोचना की क्योंकि कर्म फल की व्याख्या "अपूर्व", सिद्धान्त से नहीं हो सकती। कर्म फल के संबंध में जैमिनी ने यज्ञ से ही प्राप्ति मानी पर आपदेव आदि आचार्यों ने मोक्ष साधन के निमित्त ईश्वर को भी स्वीकार किया “ईश्वरार्पण बुद्ध्या क्रियमाण स्तु निःश्रेयस हेतुः । शबर ने धर्म को कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देने वाला कहा है। कर्तव्य-कर्म (नित्य कर्म) का पालन आवश्यक है। कुमारिल और प्रभाकर में अन्तर यह है कि कुमारिल कर्ता को ही कर्म का कारण मानता है और प्रभाकर कर्मों को कर्ता से स्वतंत्र करके विश्लेषित करता है। कर्म ज्ञान के विषय में कुमारिल प्रत्यक्ष ज्ञान मानता है और प्रभाकर अनुमेय । कुमारिल ने तो महान् पुरुषों द्वारा निष्पन्न सभी कर्मों को सदाचार नहीं गिना एवं इसकी विस्तृत सूची भी दी है, पर दोषों के परिमार्जन के विषयों का भी वर्णन किया है।
पूर्व मीमांसा के पश्चात अब हम उत्तर मीमांसा (वेदान्त) के कर्म-सिद्धान्त पर विचार करें। ब्रह्मसूत्र (१.३.३३) में बादरायण जैमिनी के इस मत का खण्डन करते हैं कि यज्ञादि कर्म में देवता का अधिकार नहीं है। बादरायण कहते हैं कि यज्ञादि कर्म में भी देवताओं का अधिकार है और यह अधिकार वेद विहित है। आगे सूत्र "फलमत उपपत्ते" (३.२.३५) में यह प्रमाणित किया है कि जीवों के कर्मफल का भोग परमात्मा ही व्यवस्थित करते हैं। "श्रुतित्वाच्च" में श्रुति के प्रमाण से यह सिद्ध किया है। अध्याय ४ के १-१३, १.१४ सूत्रों में बताया है कि पर ब्रह्म परमात्मा के प्राप्त हो जाने पर पूर्व और पीछे किए हुए पापों का नाश होता है। ज्ञानोत्तर काल में भी ज्ञानी पाप कर्म से अलिप्त रहता है। भगवत्प्राप्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों कर्मों से तर जाता है। प्रारब्ध कर्म रहने तक ही शरीर की अवधि रहती है। सूत्र (४.१.१५) में यह स्पष्ट किया है, पूर्वकृत पुण्य और पाप कर्म का नाश, उन्हीं कर्मों का होता है, जो अपना फल दे नहीं पा रहे हैं और संचित अवस्था में हैं। प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए विद्वानों को शरीर मिलता है और उनके नाश होने पर परमात्मा में विलीन हो जाता है। (वेदान्त दर्शन, गीता प्रेस के आधार पर)
शंकराचार्य ने यह प्रतिपादित किया है कि कार्य निष्ठा और ज्ञान निष्ठा दो भिन्न निष्ठाएं हैं। अभ्युदय अर्थात् सांसारिक सुख उपलब्धि के लिए कर्म विधान है और आत्मा-परमात्मा रूप में ज्ञान का अनुष्ठान (दृष्टव्य-गीता भाष्य १८-५५) आचार्य शंकर आगे कहते हैं "किसी पदार्थ में विकार उत्पन्न करने अथवा मन और अन्य वस्तुओं में संस्कार उत्पादन की इच्छा से कर्म किए जाते हैं, आत्मा में विकार अथवा संस्कार का अभाव है अतएव निमित्त कर्म अकिंचित्कर हैं;
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