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कर्म वैचित्र्यात्सु सृष्टि वैचित्र्यम्, चिदवसाना भुक्तिस्ततत्कर्मोज तत्वात्” (सांख्य दर्शन, ३१, ६७, ६-४१, ६-५५ ) अर्थात् चेतन द्वारा अर्जित कर्मों से भोगों की प्राप्ति और समाप्ति पर, आत्मा को कर्मों का कर्त्ता एवं कर्मों को भोगोत्पादक बताया है। न्याय दर्शन के मत में कर्म को ही शरीर व इन्द्रियों की उत्पत्ति का कारण बताया है। परमाणु संयोग के कारण सृष्टि का कारण भी कर्म है।
कर्म कारितश्चेन्द्रियाणां व्यूहः पुरुषार्थ तन्त्रः शरीरोत्पत्ति निमित्तवत् संयोगोत्पत्ति कर्म । ( न्याय दर्शन ३,१, ३७, ३.२.६९)
इस दर्शन के अनुसार राग, द्वेष और मोह से, मन वचन और काय की प्रवृत्ति से धर्म-अधर्म होते हैं और ये ही संस्कार हैं। न्यायसूत्र पुनः कहता है “कर्मफल ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है, ईश्वरः कारणं पुरुषकर्मा- फलस्यादर्शनात् (४/१) ईश्वर ही कर्मफल की व्यवस्था करता है। न्याय दर्शन की मान्यता है कि कुछ कर्मफल तत्काल मिलते हैं, कुछ का विलम्ब होता है। पवित्र जीवन और कर्मकाण्ड संबंधी कर्मफल इसकी दूसरी कोटि में आते हैं, क्योंकि स्वर्ग प्राप्ति मरणोपरान्त ही होती है । उद्योतकर लिखता है " तत्काल फल न मिलने का कारण उन विशेष परिस्थितियों से उत्पन्न बाधाओं से है, जो अवशिष्ट कर्मों के कारण आती हैं। इसके अन्य कारण भी उसने दिए हैं। (न्यायवार्तिक ३.२.७० ) अदृष्ट गुण व अवगुण कर्म से भिन्न नहीं हैं। कर्म करते समय हमारे ऊपर राग और द्वेष का आसन रहता है। इससे हम आत्मा का उपादेय भूल जाते हैं। राग और द्वेष से मुक्त होकर ही हम परम श्रेय और परम पद प्राप्त कर सकते हैं । समस्त कार्यों का प्रयोजन संसार से मुक्त होकर परम श्रेय पाना है । न्याय दर्शन मानता है कि आत्माएं अपना रूप पूर्व कर्मों के अनुसार धारण करती हैं। न्याय शास्त्र ने कर्म का विशद निरूपण किया है। संसार के सभी कार्य धर्म-अधर्म से ही व्याप्त हैं । कर्म का विस्तृत विवेचन वैशेषिक दर्शन ने भी किया है। न्याय दर्शन की भांति वैशेषिक भी कर्म के पांच भेदों को समान अर्थ में लेते हैं। कणाद ने कर्म की परिभाषा यों की है “कर्म वह है, जो एक द्रव्य में रहता है, गुणों से रहित है तथा संयोग और वियोग का तात्कालिक कारण है । ( वैशेषिक सूत्र १.१.७) कर्म अस्थायी हैं और आधारभूत द्रव्य के संयोग विनाश के साथ समाप्त हो जाते हैं। आकाश, काल, देश, आत्मा द्रव्य हैं, पर कर्म रहित ( संदेह है कि कणाद आत्मा को कर्म विहीन मानते थे)। गुणों की भांति कर्म निरन्तर अपना अस्तित्व नहीं रखते। यह दर्शन जगत की सभी वस्तुओं को सात पदार्थों में विभाजित करता है, जिनमें कर्म भी एक है। कर्म के पांच भेद हैं “ऊपर फेंकना ( उत्क्षेपण), नीचे फैंकना (अपक्षेपण) आकुंचन ( संकोचन ), विस्तार ( प्रसारण) और गमन । प्रशस्तपाद ने स्वैच्छुिक और अनैच्छिक दो भेद कर्मों के किए हैं। ऐन्द्रिक जीवन के कर्म अनैच्छिक हैं और आचार से सम्बन्धी
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