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यथार्थता पर बल देता है। यद्यपि बुद्ध ने कर्म स्वातंत्र्य के विषय में कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, पर इसका सर्वथा निषेध भी नहीं किया। अंगुत्तर निकाय (३.९९) में उनका यह कथन स्पष्ट है "यदि कोई मनुष्य ऐसा कहता है कि उसके कर्मों के अनुकूल ही पुरस्कार मिलता है और धार्मिक जीवन की संभावना है व दुःखों से सर्वथा मुक्ति की भी । " बौद्धमत कर्म की यांत्रिक व्याख्या न करके नीतिपरक यथार्थ व्याख्या करता है। (भारतीय दर्शन पृ. ४०७ ) अब हम भारतीय दर्शन पर विचार कर अन्य धर्मों में कर्म सिद्धांत के स्वरूप पर दृष्टिपात करने के अनन्तर जैन धर्म और दर्शन में कर्म के मूल तत्व और विज्ञान का विवेचन करेंगे।
भारतीय दर्शन के अन्तर्गत ज्ञान के विकास के साथ-साथ परमपद की प्राप्ति के लिए कर्म की नितान्त आवश्यकता है। कर्म ही अन्तःकरण को निर्मल करता है। बिना ज्ञान के शुभ कर्म संभव नहीं। इस प्रकार ज्ञान और कर्म का पूर्ण सामंजस्य करके ही व्यक्ति अपने जीवन पथ को प्रशस्त और मंगलमय करता है। दर्शन के क्षेत्र में कर्म का उतना ही महत्व है जितना ज्ञान का । डॉ. उमेश मिश्र का यह अभिमत है कि धार्मिक आचरण, कायिक वाचिक और मानसिक पवित्रता, जिनके द्वारा काय शुद्धि होती है और स्थूल अथवा सूक्ष्म उपासनाएं की जाती हैं - सभी कर्म के अन्तर्गत हैं। इसी कारण कर्म और उपासना भारतीय दर्शन का प्रारंभिक अंग है। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्म प्रकृति का विकार है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पांच क्लेश हैं। सांख्य सूत्र (५-२५) कहता है, अंतःकरण धर्मत्वं धर्मादीना । सांख्य कारिका में कथन है कि धर्म और अधर्म को संस्कार कहते हैं। उसी से शरीर बनता है " संस्कारोनाम धर्माधर्मो निमित्तं कृत्वा शरीरोत्पत्ति भवति । संस्कारवशात्-कर्मवशादित्यर्थः (६७) । ईश्वरकृष्ण सांख्यकारिका के प्रारंभ में ही आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक दुःखों के आत्यन्तिक क्षय का वर्णन करते हैं। सांख्य दर्शन में अविवेक और विद्या के कारण सुख-दुःख होते हैं। यह अविवेक ही संसार में भ्रमण का हेतु है । विज्ञानभिक्षु के मतानुसार बुद्धि कभी असफल न होने वाली तथा सभी संस्कारों को · धारण करने वाली है। स्मृतियां बुद्धि में संग्रहीत होती हैं। डा. राधाकृष्णन् इसे यों व्यक्त करते हैं।“मन के द्वारा जो संवेदनाएं तथा सुझाव मिलते हैं, वह उन्हें आत्मा को अर्पण कर देता है। इस प्रकार भावों तथा निर्णयों के निर्माण में सहायक होता है। अहंकार वह नहीं है जो सार्वभौम चैतन्य को व्यक्तित्व का अर्थ देता है 'बाह्य जगत से जो संस्कार आते हैं, उन्हें यह व्यक्तित्व प्रदान करता है। जब अहंकार पर सत्व की प्रधानता होती है, तब अच्छे कर्म करते हैं, जब रजस की प्रधानता होती है, तब बुरे कर्म होते हैं। तमोगुण में वे कर्म होते हैं, जो न अच्छे न बुरे हैं। (भारतीय दर्शन २ खण्ड पृष्ठ २६७, सांख्य दर्शन- सांख्य प्रवचन भाष्य - १ : ६२ विज्ञानभिक्षु के आधार पर)। संक्षेप में सांख्य दर्शन में कर्म निमित्तों से प्रकृति के प्रवृत्त होने का उल्लेख है। कर्मों के कारण प्रकृति में विविधता आ जाती है, “कर्म निमित्त योगाच्चं,
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