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(२१) संकल्प से होता. है, जैसे दान, अनाथालय, धर्मशाला आदि। आधिदैविक कर्म दैवी शक्ति की सहायता से किया जाता है, जिसके कारण वह अपने प्रबल संस्कारों के द्वारा प्रतिकूल कर्मों को निरस्त करता है। देव-पूजन, देव-यज्ञ आदि ऐसे ही कर्म हैं। आध्यात्मिक कर्म ज्ञान का विस्तार करते हैं-ये कर्म मनुष्य की चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाकर उच्चस्तर की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार निवृत्तिमूलक और प्रवृत्तिमूलक भेद भी किए गए हैं। प्रवृत्तिमूलक कर्म में आसक्ति, कामभावना, परिग्रह आदि हैं और निवृत्ति में तप, अहिंसा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय आदि कहा है। इस प्रकार भारतीय आचार्यों ने कर्म-मार्ग का निर्धारण किया है। इसके साथ-साथ हिन्दू दण्डनीति में कर्म-सांकर्य का भी विवेचन है, जिसके अन्तर्गत अपने स्वाभाविक कर्म को छोड़कर यदि कोई लोभ, भय अथवा रागादि से अन्य के कर्म को करे, जिसकी योग्यता उसमें नहीं है, तो वह कर्म-सांकर्य कहलाता है।
बौद्ध धर्म में आत्मवाद-अनात्मवाद के संदर्भ में ही कर्मतत्त्व पर विचार करना होगा। अनात्मवादी विचारकों ने कर्म सिद्धान्त के औचित्य पर संदेह प्रकट किया है। विदेशी विद्वानों में जेम्स ऐलविस, फर्न आदि विद्वानों की धारणा है कि अनात्मवाद के साथ कर्म सिद्धान्त की संगति नहीं बैठती है। समकालीन लेखक डेलराइप का भी प्रायः यही मत है। आत्मवाद अनात्मवाद के साथ “सातत्य" और "सकितिकता" का प्रश्न जुड़ा हुआ है। इस प्रश्न पर भी बौद्ध विचारकों में गंभीर विचार-विमर्श हुआ है। यहाँ हम सिरिस डेविड्स के मत का उल्लेख करना चाहेंगे। उनकी स्थापना है कि “गौतम के अनुसार प्राणी की मृत्यु के बाद उसके कर्मों-मानसिक तथा भौतिक कार्यों के परिणामों के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता। हर प्राणी मानव या देव पूर्व के प्राणियों की लम्बी श्रृंखला में कर्म का अंतिम वारिस या परिणाम होता है।" बुद्ध के अनुसार दो प्राणियों को एक बनाने का कार्य आत्मा नहीं, कर्म करते हैं। यह संबंध भौतिक न होकर नैतिक है। इस मत के अनुसार कर्म को ही दो जन्मों के बीच की कड़ी माना है, आत्मा का सातत्य नहीं। त्रिपिटक में कर्म सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। कर्म सिद्धान्त में “किरियावाद" आदि बौद्ध विचारधारा में उतना ही महत्व रखता है, जितना अनात्मवाद । मज्झिमनिकाय में बुद्ध बच्छगोत को बताते हैं कि किसी आजीवक को निर्वाण प्राप्त नहीं हुआ, हां एक स्वर्ग अवश्य गया, वह कर्म विपाक की शिक्षा देता था, अर्थात् किरियावादी था। (जिल्द दो-पृ. १२५)। इसी निकाय में जैन धर्म की मान्यताओं की भी समीक्षा की गई है। बौद्ध विचारणा में कर्म सिद्धान्त एक विकसित नैतिक सिद्धान्त है। टामस के शब्दों में बाह्य क्रियाओं के स्थान पर नैतिक निर्णय में कर्म सिद्धान्त का बुद्ध ने रूपान्तरण कर दिया। (हिस्ट्री आफ बुद्धिस्ट थाट-पृ. ११६) महामोग्गलायन जैसा जीवन मुक्त साधु भी चोरों के हाथों मारा गया तथा उसकी इन्द्रियाँ असफल रहीं। कीथ के अनुसार बुद्ध की दृष्टि में चेतना या संकल्प तथा इसके परिणामतः होने वाली क्रियाएं कर्म हैं। इस प्रकार मन,
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