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श्रीमद्भगवत्गीता का कर्मयोग सर्वाधिक प्रसिद्ध है। ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय कर श्रीकृष्ण ने गीता में कहा "योगः कर्मसु कौशलम्।" यों गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म की गति को अत्यन्त गहन. बताया “गहना कर्मणो गतिः।" इसके लिए श्री अरविन्द का यह कथन उल्लेख्य है___ “मानवी श्रम, जीवन और कर्म की महिमा का अपनी अधिकार वाणी से देकर सच्चे अध्यात्म का सनातन उपदेश गीता दे रही है।" बाल गंगाधर तिलक के मत में "गीता का योग पातंजलयोग से भिन्न है। उन्होंने गीतोक्त कर्म का अर्थ भी उसके धातु "क" से लिया है और कहा है कि गीता में कर्मयोग की व्याख्या इस प्रकार है"कर्म करने की विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति, चतुराई अथवा शैली को योग माना है और इसी से “योगः कर्मसु कौशलम्" का अर्थ कर्म में स्वभावसिद्ध रहने वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति कहा है।" उनके अनुसार कर्म का अर्थ “केवल श्रौत अथवा स्मार्त कर्म" नहीं है। इस प्रकार कर्म का अर्थ "कर्तव्य कर्म अथवा विहित कर्म हो जाता है" (कर्मयोगशास्त्र ३ अध्याय १२-५९-११ वां संस्करण)। गीता में कहा गया है, “कर्मयोगेण योगिनाम्"-योगी ही कर्म करने वाले होते हैं। इसी से कर्म वस्तुतः कर्मयुक्ति है। विनोबा भावे के अनुसार गीता में कर्म का आशय स्वधर्माचरण से है। इस प्रकार यज्ञ की भी भिन्न व्याख्या की है। यज्ञ के संबंध में श्रीकृष्ण प्रेम का कथन है कि "यज्ञ वह आत्म परिसीमन रूपी बलिदान है, जिसके द्वारा एक से अनेक बनते हैं, गीता में यही यज्ञ चक्र है-विश्व में निरन्तर सृष्टि प्रक्रिया का। इसी यज्ञ चक्र से प्रव्यक्त विश्व बनता है। (भगवद्गीता का योग-पृ. २४ दृष्टव्य गीता ३-१४-१५) तैत्तिरीय श्रुति “यज्ञो वै विष्णु" कहती है। गीतोक्त कर्म का विवेचन इतने व्यापक स्तर और धरातल पर हुआ है कि उसकी पुनरुक्ति अभीष्ट नहीं। केवल कुछ महत्वपूर्ण संकेत ही पर्याप्त होंगे। श्रीकृष्ण का प्रथम उपदेश है कि निष्काम कर्म अनिवार्य है, कर्मफल की अभीप्सा उचित नहीं “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (२-४७)। अन्यत्र वे कर्म से यज्ञ का उद्भव और कर्म का ब्रह्म से समुद्भव बताते हैं, "अनाश्रितं कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः (६-१) वही वस्तुतः सन्यासी और योगी है। "समत्वं योग उच्यते" समत्व ही योग है। गीता ने यह स्पष्ट घोषित किया है कि . "ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणं तमाहु पण्डितं बुधाः" (४-१९) यही पण्डित की परिभाषा भी है। इसी से श्रीकृष्ण ने द्रव्य यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ बताया (४-३३) क्योंकि ज्ञानाग्नि में सब कर्म भस्म हो जाते हैं "ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।" ज्ञान के सदृश कुछ भी पवित्र नहीं है। श्रीकृष्ण नियत कर्म करने को कहते हैं। आचार्य शंकर नियत कर्म की व्याख्या इस प्रकार करते हैं “नित्यंयोचस्मिन् कर्मणि आंधकृतः फलाय च अश्रुतम् तद् नियतम्" अर्थात जो कर्म कोई फल नहीं देता. ऐसे कर्म का व्यक्ति अधिकारी है, वही नियत कर्म है। कुछ विद्वानों ने नियत कर्म का अर्थ "निरन्तर" भी किया है। १५वें अध्याय में यज्ञ, दान, तप, कार्य वाले के लिए उपदिष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कर्ता, करण और क्रिया-तीन प्रकार के कर्म संग्रह बताते हैं एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म का उल्लेख करते हैं।
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