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(१८) " नियत विपाक" और " अनियत विपाक" के भेद से व्याख्या की गई है। इसकी व्याख्या में कर्माशय के प्रधान और अप्रधान भेद हैं। कैवल्यपाद (७-८) में कर्म के चार प्रकार गिनाए हैं - कृष्ण, शुक्ल, शुक्लकृष्ण, अशुक्लाकृष्ण । दुरात्माओं का कर्म कृष्ण है और तपस्वी, स्वाध्यायी आदि का शुक्ल । चरमदेह कैवल्य प्राप्त संन्यासी अशुक्लाकृष्ण हैं और कृष्णशुक्ल बाह्य व्यापार से साध्य है। सूत्र ८-९ में पुनः संस्कार और वासना से कर्माशय के फल का निरूपण है। सूत्र ३० में " ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः " कहकर क्लेश कर्म की निवृत्ति का विवेचन करते हुए पतंजलि जीवन्मुक्त पुरुष का वर्णन करते हैं। यह सर्वोच्च . साधन से संपन्न होते हैं।
पतंजलि ने कर्म की सैद्धान्तिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या की, जो कर्मवाद की परम्परा में अपना वैशिष्ट्य रखती है। पतंजलि के भाष्य की विवेचना करते हुए स्वामी हरिहरानन्द ने कहा है कि "प्राणी की स्वतंत्रतापूर्वक अथवा कारण वृत्ति की प्ररोचना द्वारा निहित चेष्टा पुरुषकार है और प्रबल कारणों से अविदित भाव से की गई क्रिया का नाम है " अदृष्टफल कर्म ।" पुरुषकार क्रिया की जा सकती है और नहीं भी, पर जो अनिवार्य रूप से करणीय है वह अदृष्ट फल कर्म है, सुख दुःख के फलस्वरूप ही कर्म के उपर्युक्त चार भेद किए गए हैं। सुख और दुःख का भोग ही कर्म संस्कार का फल है। जो जन्म काल से आविर्भूत रहता है, यह सांसिद्विक फल है और परवर्ती समय में अभिव्यक्त होता है, वह “अभिव्यक्तिक ।” सुख और दुःख भी तीन प्रकार के होते हैं - ( १ ) प्रत्यक्ष अनुभव - शरीरगत है, (२) अतीत एवं अनागत विषयों पर सहगत, (३) अस्फुट भाव से अनुस्यूत ( पातंजल योग सूत्रम् बांग्ला संस्करण कलकत्ता विश्वविद्यालय)। कर्मफल पतंजलि के अनुसार स्वाभाविक एवं नैमित्तिक होते हैं। देह धारण पूर्वकं हिताहित विवेचना एवं स्वगत संस्कार से प्रवर्तित-निवर्तित फल स्वाभाविक हैं और अनुकूल प्रतिकूल बाह्य घटना एवं पारमार्थिक अवस्था के परिणामस्वरूप फल नैमित्तक होते हैं, ये फल अनियमित होते हैं (वही ) | पतंजलि ने कर्म सिद्धान्त को नए आयाम दिए और परम्परा से आती हुई विचारधारा को नवीन उद्भावनाएं ।
योगवासिष्ठ में कर्म के संबंध में कहा गया है कि ब्रह्म से कर्म और कर्ता अभिन्न रूप में प्रकट हुए। दोनों की उत्पत्ति कारण-कार्य भाव से है- बीज से अंकुर और पुनः बी । योगवासिष्ठकार ने कर्मफल को अत्यन्त व्यापक बताया है, मनुष्य ही नहीं पर्वत, आकाश, समुद्र, देश, सभी कर्म फल भोगते हैं, यथा,
अभिन्न कर्म कर्त्तारो सममेदं पदात् पदात् । स्वयं प्रकट वा यातौ पुष्पामोदी तरोरिव ॥
एवं कर्मणा क्रियते कर्ता कर्त्रा कर्म प्रणीयते ( ९५-२० )
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न से शैलो न तदव्योम न सौऽब्धिश्च न विष्टपम् । (९५-३३)
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