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भी है। मुण्डकोपनिषद में अपराविद्या और पराविद्या के संदर्भ में यज्ञ कर्म की विशद व्याख्या की गयी है। विद्वानों ने पिण्ड में होने वाले प्राण यज्ञ को ही कर्म गिना है। इसी उपनिषद् में यह भी कहा गया “अनाव्याणौ मनाः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्" (१-५)। ऐसा कर्म करना चाहिए, जिसमें अमृत निहित है। छान्दोग्य श्रुति (४-१६-१) में यज्ञ के दो मार्ग मन और वाणी बताए गए हैं अर्थात् सृष्टि यज्ञ का ब्रह्म, आत्म-यज्ञ का मन और अध्वर्युवापी है।
अन्य उपनिषदों में भी कर्म और अकर्म की व्याख्या उपलब्ध है। निरालम्बोपनिषद् के अनुसार क्रियाशील इंद्रियों के द्वारा अध्यात्म-निष्ठा से निष्पन्न कर्म ही सच्चा कर्म है फलासक्ति पूर्ण कर्म अकर्म है-अध्यात्म निष्ठया कृतं कर्मेव कर्म.....फलाभिसन्धानं यत्तदकर्म। नारदपरिव्राजकोपनिषद् (३-६-७) के अनुसार “न मंत्र कर्मरहितं कर्म मन्त्रमपेक्षते" मंत्र बिना “कर्म कुर्यादभस्मन्याहुतिवद भवेत्।" मंत्र के साथ कर्म की संगति पर बल दिया गया। कर्म सिद्धान्त के साथ ही श्रुतियों में पुनर्जन्म का भी वर्णन है, जिस पर पीछे विचार करेंगे।
महाभारत में कर्म मीमांसा की गई है। महाभारत में जितना व्यापक और विशद वर्णन कर्म सिद्धान्त का है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता। गीता का कर्मयोग तो सर्वविदित है। महाभारत के शान्ति पर्व में पाप की निष्कृति तप, दान तथा कर्म के अनुष्ठान में बतायी गयी है। तपसा, कर्मणा चैव प्रदादेन च भारत" (शान्ति पर्व २५.१)। इसी प्रकार संसार को कर्मस्थली कहा गया और कर्मफल का विवेचन करते हुए बताया कि “कर्मभूमिरियं लोके इह कृत्वा शुभाशुभम्।" महाभारत में कर्मफल के संबंध में यह भी कहा गया है कि सुकर्म के द्वारा मनुष्य अपने दुष्कर्मों को भी नष्ट कर सकता है। जिस प्रकार काठ के सहारे मनुष्य नदी पार.करता है, पर साथ ही वह काठ के टुकड़े को भी पार कराता है, उसी प्रकार सुकर्म मनुष्य के दुष्कर्मों को भी भव सागर से पार करता है (११२.१४०-१-३१-३३)। महाभारत के पात्र अपने कर्मफल को प्रायः भोगते हुए दिखाई पड़ते हैं। शुभ अशुभ कर्मों के कारण ही यह विश्व कर्मों की रंगस्थली है। महाभारत में "कर्म यज्ञ की पूर्णता" का जो विवेचन किया गया है, वह सामाजिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक आदर्शों का दर्पण है। महाभारत कर्म को अतीत, वर्तमान व भविष्य से जोड़ता है। वह नियतिवाद का समर्थक नहीं है। सार तत्व है कि मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां तथा मन ही कर्म साधक हैं।
महाभारत मन, वचन व शरीर के आधार पर भी कर्मों का वर्गीकरण करता है। इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी हरिहरानन्द कहते हैं "कारण-कार्य नियम से शरीर के कर्म से जाति, आयु और भोग घटित होता है। बाह्य कारणों से शरीर, इन्द्रियों से जो फल होता है, वह नितान्त सत्य है। शरीर का निर्माण संस्कार युक्त अन्तःकरण करता है किन्तु उसका उपादान पंच भूतात्मक है"। यहीं पर वे कर्मवाद का प्रतिपाद्य
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