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(१४) डॉ. मंगलदेव शास्त्री के अभिमत में देव-पूजा, स्तुति-प्रार्थना ही यज्ञ अथवा वैदिक कर्मकाण्ड का प्रारंभिक स्वरूप था । इस सम्बन्ध में ऋग्वेद की यह ऋचा उल्लेखनीय है “तामिर्वहैनं सुकृतां उत्लोकम्" (१०.१६.४) अर्थात् मृतक को उस लोक में ले जायें जहां अच्छे कर्म वाले हैं। "सुकृतांलोकम्" अन्यत्र भी प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद की एक और ऋचा (१.३१.८) में बताया गया है कि हे अग्नि ! हमें एक ऐसा पुत्र दो, जिससे हम कर्म (यज्ञ) कर सकें। सायण ने इस ऋचा की "प्राप्नुयाम वयं कर्म यज्ञ" व्याख्या की है (भारतीय संस्कृति का विकास)।
ब्राह्मण ग्रन्थों में कर्म शब्द का प्रयोग प्रायः यज्ञ के अर्थ में ही किया गया है। शतपथ ब्राह्मण स्पष्ट कहता है “यज्ञो वै कर्म" और "यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म"। अन्यत्र वीर्य वै कर्म (द्रष्टव्य १.१.२.१, १.७.१.५, ७.५.१.२५)। इसी ब्राह्मण में कर्मानुसार फल की प्राप्ति कही है.'तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभि सर्पद्युत इति (१४. ७. २. ७)। ऐतरेय ब्राह्मण में सायण ने कर्म का अभिप्रेत “सोमयाग" से लिया है (१-४)। तैत्तिरीय ब्राह्मण में यो ब्रह्मणा कर्मणा देष्टि देवाः (३, ७, ६, ५) कहकर कर्म, ज्ञान, तप, दान, आदि अर्थ किया है। यह ब्राह्मण कहता है कि बहति हवै वह्निधुरो यासु युज्यते (६. १. ८) कर्मशील व्यक्ति जिस काम को हाथ में लेता है, उसे पूरा करता है। इस ब्राह्मण का प्रसिद्ध गीत "चरैवेति" पुरुषार्थ का द्योतक है। (७-१५) । कर्मशीलता का सम्बन्ध पुरुषार्थ से है। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि कर्म ही जीवन को प्रतिष्ठा देता है। ययाति ने यहां तक कहा कि वह वस्तु नहीं चाहिए, जिसके लिए मैंने कर्म न किया हो।
इसके पहले कि हम उपनिषद्, रामायण, महाभारत में कर्मवाद का अवलोकन करें, वैदिक कर्मकाण्ड के अधोपतन पर भी विचार करना अपेक्षित है, क्योंकि इस अधोपतन व अवनति का कारण यज्ञ धारणा की हेय व अपकृत हो गयी थी। ब्राह्मण ग्रन्थों में ही इस अवनति का उल्लेख मिलता है। हम पुनः ऐतरेय ब्राह्मण को लें। वह कहता है “यज्ञ के वास्तविक स्वरूप को न जानकर अनधिकारी, लोभी, लुटेरे, ऋत्विज, श्रद्धालु, यजमानों को लूटने लगे (११)। इसी ब्राह्मण में यह भी आया है कि ऋत्विज भय, लोभ और अनाचार के वशीभूत यज्ञ कराने लगे थे (३-४६)। यह भी बताया गया है कि ऋत्विज यजमान का प्राण भी ले सकता है।
“यं कामयते प्राणनैनं व्यर्घ वायव्यमस्य लुब्धं शं सेदृचं । वा पदं वाती यान्ते नैवं तल्लुब्धं प्राणे नैवैनं तदब्यर्च यतीति ॥ (३.३) इस प्रकार यज्ञ युग आर्यों के लिए एक विभीषिका बन गया और इससे यज्ञ विरोधी वातावरण जन्मा, जिसकी परिणति श्रमण संस्कृति में हुई। श्रमण संस्कृति ने यज्ञ परम्परा व हिंसा का विरोध करना अपना प्रथम कर्तव्य समझा। चार्वाक ने भी यज्ञ का विरोध किया। परवर्तीकाल में कर्म सिद्धान्त ने नया रूप धारण कर लिया,
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