Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 16
________________ (१२) है कि उन्होंने तीन सौ के लगभग ग्रन्थों की रचना की है, जिसके लिए प्रसिद्ध विद्वान दलसुख मालवणिया ने भी उनकी प्रशस्ति की। ये ग्रन्थ गुणात्मक और धनात्मक दोनों दृष्टियों से प्रभूत ज्ञानवर्धक हैं। यहाँ उनकी सूची देना अपेक्षित नहीं क्योंकि वह लोक विदित हैं। प्रस्तुत ग्रंथ कर्म-विज्ञान उनके मौलिक, गंभीर और विवेक संगति का अनुपम ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने जैन धर्मानुसार कर्म सिद्धान्त की तात्त्विक, वैज्ञानिक और प्रामाणिक प्रस्तुति, वृहत् परिप्रेक्ष्य में, तुलनात्मक धरातल पर की है। ग्रन्थ की विषय सूची ही यह स्वतः सिद्ध कर देगी। प्रथम खण्ड में कर्म का अस्तित्व, कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन, कर्म का विराट स्वरूप (कुल पृष्ठ ६०७) मुख्य विषय हैं, जिनके अन्तर्गत विभिन्न रूपों में कर्मवाद का विवेचन किया गया है। द्वितीय खण्ड में कर्म-विज्ञान की उपयोगिता और विशेषता पर (५३५ पृष्ठों में) समीक्षा की गई है। तृतीय खण्ड में आस्रव और संवर की (५00 पृष्ठों में) व्याख्या की गई है। चतुर्थ खण्ड में कर्मबन्ध के विभिन्न रूपों पर (५००) पृष्ठों में प्रकाश डाला है। इस प्रकार संपूर्ण रचना २००0 पृष्ठों में कर्मविज्ञान की वृहत्तम प्रकाशिका बन गई है। जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि इसकी उपादेयता केवल पृष्ठ परिमाण की दृष्टि से ही नहीं है, बल्कि प्रमाण और परिणाम की सिद्धि से है। जिस प्रकार समुद्र की अतल गहराई वायुयान से नहीं मापी जाती, उसका तो पता कुशल व अनुभवी गोताखोर ही लगा सकते हैं, उसी प्रकार कर्मवाद की अतल गहराई अप्रतिम प्रतिभा संपन्न विद्वान ही माप सकते हैं। आचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने यह ऐतिहासिक कार्य किया जो सर्वसुलभ और युगान्तरकारी बन गया है। यह उनकी क्षमता व सिद्धि-सम्पन्नता का साक्ष्य है। कर्म शब्द "कृ" धातु से बना है, जिसका अर्थ है व्यापार, हलचल । कर्म के दो अर्थ माने गये हैं, वह क्रत्वर्थ और पुरुषार्थ का पर्याय है? कहा गया है कि “कर्मणा बध्यते जन्तुः।" कर्म से प्राणिमात्र बंधा है, कर्म की प्रचलित परिभाषा है-“यक्रियते तत् कर्मन्" करोति निखिल-क्रिया वाचकत्वात् कर्तव्याय रैर्यत् साध्यते तदित्यर्थ,-अतएव क्रिया साध्य कर्म।" पुनः “क्रियते फलार्थिभिरिति कर्म धर्माधर्मात्मक बीजांकुरवत् प्रवाह रूपेणादि।" आचार्यों ने कर्तव्य को भी कर्म का पर्याय गिना है। महापुराण के अनुसार “विधि सृष्टा विधाता दैव कर्म पुराकृतम्'। ईश्वरे रचेती पर्याय कर्म वेधस (४३७) विधि, सृष्टा, विधाता, देव, पुरातम, ईश्वर ये कर्म रूपी ब्रह्म पर्याय हैं। यास्काचार्य के मत में “कर्मकस्मात् क्रियते इति" (निरुक्त ३-१-१) अर्थात् जो किया जाता है, वही कर्म है। इस प्रकार कर्म का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ अत्यन्त व्यापक है। प्राणिमात्र की प्रत्येक क्रिया कर्म से अभिहित है। योग-वासिष्ठ ने कर्म की परिभाषा इस प्रकार की है "स्पन्दनशीलता ही कर्ता का धर्म है, उसकी कल्पना शक्ति ही स्पन्दन क्रिया से कर्म बनती है; अर्थात् क्रिया और उसका फल दोनों का सम्मिलित रूप कर्म है।" फल के बिना कर्म नहीं हो सकता "स्पन्दफलं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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