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प्रस्तावना
कर्म विज्ञान : एक अप्रतिम उपलब्धि
प्रो. कल्याणमल लोढ़ा (पूर्व कुलपति जोधपुर विश्वविद्यालय)
आचार्य देवेन्द्र मुनि जी का वृहत् ग्रन्थ “कर्म-विज्ञान"(चार भागों में प्रकाशित) एक अप्रतिम उपलब्धि है। उसके लिए लिखना कर्तव्य से अधिक मेरे लिए मंगलप्रद है। जैन वाङ्मय में ही नहीं, समूचे भारतीय वाङ्मय में ऐसी प्रकल्पना दिखाई नहीं देती। मैं इसे जैन कर्म तत्त्व का “विश्वकोष" ही कहना चाहूंगा। यों तो संसार के सभी दार्शनिकों, तत्त्वज्ञों और चिन्तकों ने कर्म की विशद व्याख्या-विवेचना की हैदर्शन ही क्यों मनोविज्ञान और पराविज्ञान में भी यह विचारणीय और महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है। भारतीय मनीषियों ने कर्म पर जितना गहन, गंभीर और समग्रतः विवेचन किया है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता। कोई ऐसा धर्म, दर्शन व ज्ञान-विज्ञान नहीं है, जिसमें कर्म तत्त्व की व्याख्या न की गई हो। पुनर्जन्म को मानने वालों की तो यह आधारभूमि ही है। आवागमन में विश्वास न करने वाले विचारकों ने भी इसकी व्याख्या की है, चाहे वह भिन्न स्तर की क्यों न हो। जैन धर्म-दर्शन तो कर्म सिद्धान्त पर ही आधृत है। : आचार्य देवेन्द्र मुनि जी का वैदुष्य सर्वविदित है। वे प्रज्ञा-पुरुष हैं। प्रज्ञा विवेक के लिए तप, श्रद्धा, स्मृति, समाधि आवश्यक है। मुण्डकोपनिषद कहता है-“तपः श्रद्धेये
युपवसन्त्यरण्ये (१-३-११)" सत्य की साधना श्रद्धा और तप के द्वारा संभव है। यही योग की मधुमती भूमिका है। आचार्यप्रवर में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की दुर्लभ त्रिवेणी है। वस्तुतः वे ज्ञान योगी हैं और जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है "नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते (४-३०)" ज्ञान से ही समस्त कर्मों का क्षय होता है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा (वही-४-३७)" ज्ञान ही दर्शन और चारित्र की निर्माण भूमि है। जैन मान्यता में श्रमण के लिए कहा गया है "झाणाज्झयणं मुक्खं जइ धम्म (रयणसार)" ध्यान और अध्ययन साधु का मुख्य धर्म है। आचार्य हरिभद्र ने दशवैकालिक सूत्र में श्रमण की व्याख्या करते हुए कहा है कि तपःसाधना से मुक्ति लाभ करने वाले ही श्रमण कहलाते हैं “श्राम्यतीति श्रमणा तपस्यन्तीत्यर्थः"। आचार्यश्री की ज्ञाननिष्ठा, तप-साधना व दर्शन और चारित्र की उत्कृष्टता ने उन्हें जैन समाज में अत्यंत प्रेरक और प्रभावी बना दिया है। उनका व्यक्तित्व विनम्रता, सरलता, शुचिता और संयम की मंजूषा है, तो उनका कृतित्व अप्रतिम प्रतिभा और विद्वत्ता का रलकोश । प्रमाण, परिमाण और परिणाम तीनों दृष्टियों से वे आचार्य हैं। यही कारण
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