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स्वैच्छिक । प्रथम का लक्ष्य शरीर है और दूसरे का कल्याण । ( प्रशस्तपाद) सर्वोत्कृष्ट सुख ज्ञानी पुरुष को होता है, जो सर्व स्वतंत्र है और शान्ति, सद्गुण और संतोष प्रदान करता है। वैशेषिक दर्शन ने कर्म-कर्तव्य के १३ नियम भी बताए हैं। अहिंसा को ही धर्म गिना है, हिंसा भाव अधर्म है।
मीमांसा दर्शन ( पूर्व ) के दो प्रधान विषय हैं, कर्मकाण्ड के विरोध का परिहार-समाहार और उसके मूल सिद्धान्तों का युक्तिपूर्वक प्रतिपादन । इस दर्शन में यज्ञ के अर्थ में कर्म का प्रयोग हुआ है। कर्म के संबंध में यज्ञ के अनुष्ठान का उल्लेख है । कृते वा विनियोगस्सस्यात्कर्मणः सम्बन्धात् ( मीमांसा दर्शन १.१.३२) कर्म नित्य एवं सार्वकालिक है। कर्म में दैहिक अंगों का गतिमान होना अनिवार्य है । जैमिनी सूत्र भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं, “न च कर्मान्तरेण शरीरं सम्भवति, न च शरीरमन्तरेण कर्म सम्भवतीतरेतराश्च यत्व प्रसंगः" (ब्रह्मसूत्र - भाष्य २.१.१२. ३६) । वेदों में तीन कर्मों का उल्लेख है - नित्य नैमित्तिक, निषिद्ध और काम्य । काम्य कर्म कामना विशेष की सिद्धि के लिए होते हैं। ये स्वर्गादि को देने वाले हैं। निषिद्ध कर्म अनिष्टकारक हैं, नरक देने वाले । प्रभाकर के मतानुसार सिद्धान्त मुक्तावलि में ऐच्छिक कर्म का यह क्रम निदर्शित है। कार्य का ज्ञान, चिकीर्षा ( कृति साध्यज्ञान) प्रवृत्ति चेष्टा और क्रिया । प्रभाकर कर्तव्य कर्म पर अधिक बल देता है। मीमांसक मानवीय स्वतंत्रता का पक्षधर है - इसकी संगति, डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में कर्म विधान नहीं है। नित्य नैमित्तिक वे कर्म हैं, जिनके न करने पर दोष होता है। मीमांसक दो प्रकार के कर्मों में भेद करते हैं - सहज कर्म और ऐच्छिक कर्म । ऐच्छिक कर्म बौद्धिक होते हैं और एक काल में घटित । कर्म को मीमांसक प्रत्यक्षगोचर मानते हैं, यह भाट्टमत है; पर प्रभाकर मतानुसार कर्म अनुमेय है। वस्तु के क्रियाशील होने पर क्रिया दिखाई नहीं पड़ती है। वरन् संयोग अथवा विभाग होता दिखाई पड़ता है। ये दोनों गुण हैं और इन्हीं से कर्म का अनुमान होता है। इसके अनुसार कर्म मीमांसा का प्रमुख उद्देश्य है कि प्राणी वेद द्वारा प्रतिपादित अभीष्ट साधक कार्यों में प्रवृत्त हो और अपना हित साधन करे । “स्वर्ग कामो यजेत” का तात्पर्य है कि स्वर्ग के लिए यज्ञानुष्ठान । निष्काम कर्म का प्रतिपादन भी मीमांसक करते हैं, इसके धर्माचरण से आत्मज्ञान होता है और पूर्वकर्मों के संचित संस्कार नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति बन्धन मुक्त हो जाता है। मीमांसकों ने (कुमारिल, प्रभाकर भट्टतात आदि) कर्म के अभाव में फलोदय की धारणा में अपूर्व का शीर्ष महत्व माना है। प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्यापुण्य) की क्षमता रहती है।
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यागादेव फलं तद्धि शक्ति द्वारेण सिध्यति ।
सूक्ष्मशक्तत्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते ॥
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( तन्त्रवार्तिक पू. ३९५)
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